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( २२६) योगचिन्तामणिः। [मिश्राधिकारःसमितादिना तन्मन्दाग्निना यामयुगं पचेच्च ॥५॥ शोधितं गन्धकं यावत्तावती त्रिफला भवेत् । द्वयोस्तुल्या सिता देया कर्षाई खादयेत् सुधी॥६॥ कण्डूविचर्चिकादद्रूसिध्ममण्डलकुष्टनुत् । अम्लक्षार हिङ्गु तलमग्नितापं च वजयेत् ॥७॥ दूध, घी, नींव का रस, भांगरेका रस, प्रत्येकमें गन्धकको शोधे, एक हांडीमें गन्धक कपडेकी पोटली बनाय दोलायन्त्रमें मन्दाग्निसे पकावे, फिर दूध हांडीमें भरकर ऊपर कपडा बांधकर गन्धक रख मन्दाग्निसे देय, कूर्मपुटसे इस प्रकार गन्धक शुद्ध होवे, फिर गन्धक सूक्ष्म पीसकर, कपड़े में बांधकर सूक्ष्म वस्त्रसे मुद्रा कर चार प्रहर यन्त्रमें राखे, फिर दो प्रहर मन्दाग्नि देवे, जब शुद्ध हो जाय तब त्रिफलेका चूर्ण, गन्धक त्रिफलाकी बराबर मिश्री २ टंक मिलाकर खाय तो खाज, विचचिका, दाद, सिध्म, मण्डल और कोढ दूर होवें । परहेज खट्टा, खारी, हींग, तेल, अग्निका तापना बन्द करे ॥ ३-७ ॥
शिलाजतुशोधनप्रकारः। बीन्वारा प्रथमं शिलाजतु जले भाव्यं भवेत्रफले निकाथे दशमूलजे च तद्नु च्छिन्नोद्भवाया रसैः। वाट्यालं कथने पटोलसलिले यष्टीकषाये पुनगोमूत्रे च पयस्यथापि च गवामेषां कषाये ततः॥१॥
तीन बार पहिले शिलाजीतको त्रिफलेके काढेकी भावना देवे. फिर दशमूलके काढेकी भावना देवे. फिर गिलोयके काढेकी भावना देवे. फिर पटोलके काढेकी भावना देवे. फिर मुलहठी, गोमूत्र, दूध इनकी भावना देवे तो शुद्ध होय ॥ १ ॥
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