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प्रथमः] भाषाटीकासहितः। (४९)
पेठापाक १-४। खण्डान्कूष्माण्डकानामथ पचनविधिच्छिन्नशु. ष्काज्यपक्कांस्तस्मिन्खण्डे विपके समरिचमगधाशुठयजाजीत्रिगन्धी । लेहोऽयं बालवृद्धानिलरुधिरकृशस्त्रीप्रसक्तिक्षतानां तृष्णाकासार्शपित्तश्वसनगुदरुजाच्छर्दितानां च शस्तम् ॥ १ ॥ १-पका पेठा सेरभर लेकर उसको छील कतरकर चनेके पानीमें धोवे, पीछे स्वच्छ जल में धोकर तदनन्तः उसको गोंदकर गोके नवीन घृतमे परिपक्क करे जब पक जाय तब मिश्रीकी चासनी कर अवलेह बनावे । और इसमें इन औषधियोंको डाले--कालीमिरच, पीपल, सोंठ, जीरा, तज, पत्रज, इलायची । यह कृष्मांडावलेह बालक और बृद्ध मनुष्योंके रोगको दूर करे, वादी और रुधिरके विकार, कृशता स्त्रियों के सेवनसे जो क्षीण होगया हो उनकी क्षीणता, प्यास, खांसी, बवासीर, पित्तके रोग, श्वास, गुदा रोग और छदिरोग इनको नाश करे ॥ १॥
छालिं निष्कृष्य कूमाण्डखण्डानि परिकल्पयेत् । कांजिकेन च धोतानि पुनरेव जलेन च ॥१॥ पश्चात्क्षीरस्य प्रस्थेन कल्पयेत्पुनरेव च । घृतेन पुनरेतानि पाचयेत्सुविधानतः ॥२॥ यदा मधु. निभानि स्युस्तदा शर्करया युतम् । निधाय तत्र चेमानि भेषजानि प्रकल्पयेत् ॥ ३ ॥ पिप्पलीशृङ्गवेराभ्यां द्वे पले मरिचानि च । जीरके द्वे तथा
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