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पंचमः 1
भाषाटीकासहितः ।
रूपलावण्यसंपन्नं शतायुर्विगतज्वरम् । जीवद्वत्सैकवर्णाया घृतमत्र प्रशस्यते ॥ १० ॥ एतत्फलघृतं नाम भारद्वाजेन भाषितम् । अनुक्तं लक्ष्मणामूलं क्षिपत्यत्र चिकित्सकः ॥ ११ ॥
त्रिफला, मुलहठी, कुल, दोनों हलदी, कुटकी, वायविडंग, पीपल, नागरमोथा, इंद्रायण, कायफल, वच, काकोली, क्षीरकाकोली, दोनों सारिवा, प्रियंगु, सौंफ, हींग, रास्ना, चंदन, रक्तचंदन जावित्री, वंशलोचन, कमलगट्टा, मिश्री, अजमोद, जमालगोटेकी जड इन सब औषधियोंको चार चार टंक लेकर काढा करे और बछडेवाली एकरंगी गायका २५६ टंक घी शतावरी ४ प्रस्थ, चौगुने घीमें
वे फिर चौगुने दूधमें अरने उपलोंकी आग देकर अच्छी तिथि और शुभ नक्षत्र में मिट्टी वा तांबेक पात्रमें औटावै, फिर अच्छा दिन देखकर स्त्री अथवा पुरुष पंवे, जो पुरुष सेवन करे तो स्त्रीको सदा सुख देवे और पुत्र वीर्यवत होवे और वंध्या पुत्र जने और जिसका अल्पायु पुत्र होवे और गूंगा, वह स्त्री बुद्धिमान और सौ वर्षकी आयुवाला पुत्र जने, जिस स्त्रीके कन्या होती होय वहभी पुत्र जने, जिसका गर्भपात होता होवे उसका गर्भ स्थिर होवे, जो मराहुआ पुत्र जनती हो वह बुद्धिमान् पुत्र जने । रूपवान् निरोगी पुत्र होवे, परंतु एकवर्णी गौका घी लेवे, यह संतान के लिये घृत भारद्वाजऋषीने कहा है और अच्छे वैद्योंने कहा है कि, पीछे लक्ष्मणाजडी डालकर लेवे ॥ १-११ ॥
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सहावरे द्वे त्रिफला गुडूची सपुनर्नवा । शुकनासा हरिद्रे द्वे रात्रा मेदा शतावरी ॥ १ ॥ कल्कीकृत्य घृतप्रस्थं पचेत्क्षीरं चतुर्गुणम् ।
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