________________ से होने वाली ज्ञान-कुसुम-वृष्टि में से कुछ ज्ञान-पुष्प अपनी निर्मल बुद्धि रूप चादर में संगृहीत करते हैं और उसे गूंथ कर 'आगम' रूप माला के रूप में मूर्त रूप प्रदान करते हैं (द्र. विशेषावश्यक भाष्य-1094-1101)। जिनवाणी का दिव्य स्वरूप तीर्थंकर की भाषा अर्द्धमागधी प्राकृत मानी गई है। उसमें ऐसा भाषातिशय होता है कि वह आर्यअनार्य, पशु-पक्षी आदि के लिए उनकी अपनी-अपनी भाषाओं में परिणत होकर बोधगम्य होती है (द्र. समवायांग- सूत्र-14)। औपपातिक सूत्र के अनुसार वह भाषा सर्वाक्षरसमन्वययुक्त व सर्वभाषानुगामिनी होती है तथा एक योजन पर्यन्त तक स्पष्ट रूप में सुनी जा सकती है। दिगम्बर परम्परा में इसे एक अनक्षर 'दिव्यध्वनि' के रूप में वर्णित किया गया है। आगमों के आत्मागम आदि भेद तीर्थंकर की वाणी और गणधरों द्वारा की गई आगम-रचना तक आते-आते आगम के तीन क्रमिक रूप निष्पन्न होते हैं- (1) आत्मागम, (2) अनन्तरागम, और परम्परागम (अनुयोगद्वार, सूत्र-470)। तीर्थंकरों ने जिस अर्थागम का उपदेश दिया, वह उनके लिए आत्मागम है, किन्तु गणधरों के लिए वह अर्थागम 'अनन्तरागम' है, क्योंकि उन्होंने उसे तीर्थंकरों से साक्षात् (अनन्तर ही, बिना व्यवधान के) प्राप्त किया है। वही अर्थागम गणधरों के शिष्य-प्रशिष्यों के लिए 'परम्परागम' हैं। इसी प्रकार गणधरों द्वारा शब्दात्मक रूप लेकर जो 'सूत्रामम' अस्तित्व में आता है, वह उन गणधरों के लिए 'आत्मागम' हो जाता है, किन्तु उनके शिष्यों के लिए . 'अनन्तरागम' और प्रशिष्यों के लिए 'परम्परागम' हो जाता है। आर्य सुधर्मा ही भगवान् महावीर के उत्तराधिकारी यहां यह उल्लेखनीय है कि भगवान् महावीर की श्रुत-परम्परा व संघ-परम्परा के वाहक वस्तुतः आर्य सुधर्मा थे। क्योंकि ग्यारह गणधरों में गौतम गणधर और आर्य सुधर्मा के अलावा शेष नौ गणधर तो भगवान् महावीर के जीवन-काल में ही निर्वाण प्राप्त कर गये। गौतम गणधर भी, भगवान् के निर्वाण के समय, भगवान् की आज्ञा से ही दूसरे गांव में गए हुए थे, शीघ्र केवली' हो गए। अतः आर्य सुधर्मा पर ही, संघसंचालन का उत्तरदायित्व आया और वे ही भगवान् महावीर के वास्तविक प्रथम उत्तराधिकारी बने। उनके बाद उनके शिष्य आर्य जम्बूस्वामी द्वितीय उत्तराधिकारी बने। इस प्रकार, आज जो निर्ग्रन्थ-परम्परा या श्रुतपरम्परा प्रवर्तमान है, वह आर्य सुधर्मा की ही शिष्य-परम्परा का प्रतिनिधित्व करती है (दिगम्बर परम्परा में गौतम गणधर को ही प्रथम उत्तराधिकारी माना जाता है)। द्वादशांगी व पूर्व' की संकलना भगवान् महावीर के प्रवचनों को गणधरों ने सूत्ररूप में संकलन किया, उसे अंग-साहित्य नाम से प्रसिद्धि प्राप्त हुई। समस्त 'अङ्गों' की संख्या बारह है, जो इस प्रकार है- (1) आचाराङ्ग, (2) सूत्रकृताङ्ग (3) R8800RB0BROOR@@R [23] RBOBRORBRBRBRBRBR