Book Title: Vijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Author(s): Navinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
Publisher: Vijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
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जैन धर्म का स्वरूप
- आचार्य श्री विजयानंद सूरि (आचार्य श्रीमद् विजयानंद सूरीश्वरजी महाराज की सबसे छोटी पुस्तक 'जैन धर्म का स्वरूप' है । सामान्य लोग जो जैन धर्म का संक्षिप्त और जल्दी ही परिचय प्राप्त करना चाहते हैं। उनके लिए यह पुस्तक लिखी गई है। एक प्रकार से यह जैन धर्म परिचय लेख है । उसे यहां उन्हीं की भाषा में जस का तस प्रकाशित कर रहे हैं। इससे उनकी भाषा और प्रस्तुति का प्राथमिक परिचय मिलता है।)
यह संसार द्रव्यार्थिक नय के मत से अनादि अनंत सदा शाश्वता है, और पर्यायार्थिक नय के मत से समय समय में उत्पत्ति और विनाशवान है, इस संसार में अनादि से दो-दो प्रकार का काल प्रवर्तता है, एक अवसर्पिणी, और दूसरा उत्सर्पिणी, जिसमें दिन प्रतिदिन आयु, बल, अवगाहना प्रमुख सर्व वस्तु घटती जाती है तिस काल का नाम अवसर्पिणी कहते हैं। और जिसमें सर्व अच्छी वस्तु की वृद्धि होती जाती है, तिसका नाम उत्सर्पिणी काल कहते हैं।
इन पूर्वोक्त दोनों कालों में कालके करे छै छै विभाग है, जिसको अरे कहते हैं। अवसर्पिणी का प्रथम सुखम सुखम १, सुखम २, सुखम दुखम ३, दुखम सुखम ४, दुखम ५, दुखम दुखम ६ है । उत्सर्पिणी में छहों विभाग उलटे जानने । जब अवसर्पिणी काल पूरा होता है, तब उत्सर्पिणी काल शुरू होता है, इसी तरह अनादि अनंत काल की प्रवृत्ति है ।
प्रत्येक अवसर्पिणी उत्सर्पिणी के तीसरे चौथे अरे में चौबीस अर्हन् तीर्थंकर अर्थात् सच्चेधर्म के कथन करनेवाले उत्पन्न होते हैं । जो जीव धर्म के बीस कृत्यकर्ता है, सो भवांतरों में
जैन धर्म का स्वरूप
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