Book Title: Vastu Chintamani
Author(s): Devnandi Maharaj, Narendrakumar Badjatya
Publisher: Pragnyashraman Digambar Jain Sanskruti Nyas Nagpur
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वास्तु चिन्तामणि
+ ॐ जिनाय नमः धर्म तीर्थ के कर्ता जिनवर, सुरासुरेन्द्र से वन्दित हैं। घात्ति कर्म जो रहित हुए हैं, वर्धमान सिंह अंकित हैं।। आदि वीर को नमस्कार कर, वास्तु सार को लिखता हूं। करो अगार की रचना इससे, उभय लोक सुख मिलता है।।
वास्तु परिचय संसार में मनुष्य जाति सभ्यता के शिखर पर मानी जाती है। तिर्यंच अर्थात् मनुष्य के अतिरिक्त अन्य प्राणी स्वयं का आवास स्थान बनाने में सामान्यत: असमर्थ होते हैं तथा प्रकृति प्रदत्त स्थानों पर निवास करते हैं। पक्षी घोंसले बनाकर, मूषक आदि बिल बनाकर तथा मधुमक्खियां छत्ता बनाकर अपना आवास करती हैं मनुष्य चूंकि इन सब प्राणियों से काफी अधिक ज्ञानवान तथा क्रियावान होता है अतएव उसकी आवास आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उसे मकान, भवन प्रासाद, महल, कुटीर आदि की आवश्यकता होती है। आवास सभी प्राणियों की मूल आवश्यकता है। वायु, जल, अन्न, वस्त्र आदि भी इसी भाति मनुष्य के जीवन के मूलाधार हैं।
मनुष्य अपने आवास गृहों का निर्माण धरातल पर मिट्टी, सीमेंट, लकड़ी, लोहा, पत्थर, ईंट इत्यादि सामग्री से करता है। व्यापार, उद्योग, विद्यालय, मंदिर, स्थानक इत्यादि का निर्माण भी इसी भाति किया जाता है। मनुष्य विविधता पसन्द प्राणी है तथा नवीनता में उसकी विशिष्ट अभिरूचि होती है अतएव भवन निर्माण में मनुष्य अपनी रूचि के अनुरूप पृथक संरचनाओं का निर्माण करता है। जिस प्रकार मनुष्य के जीवन पर वातावरण का प्रभाव होता है उसी प्रकार उसकी आवास संरचना का प्रभाव भी मनुष्य के जीवन पर अनुकूल या प्रतिकूल अथवा शुभ-अशुभ पड़ता है। इसके अध्ययन करने वाले शास्त्र को ही वास्तु विज्ञान कहा जाता है।
___ तत्वार्थ सूत्र ग्रंथराज में आचार्य उमास्वामी ने सप्तम अध्याय के 29वें सूत्र में परिग्रह परिमाण व्रत के अतिचार के संदर्भ में दस प्रकार के परिग्रहों का नामोल्लेख किया है -
'क्षेत्रवास्तुहिरण्यसुवर्णधनधान्यदासीदासकुप्यप्रमाणातिक्रमः' इस सूत्र में स्पष्टत: वास्तु को परिग्रह बताया गया है।