Book Title: Vastu Chintamani
Author(s): Devnandi Maharaj, Narendrakumar Badjatya
Publisher: Pragnyashraman Digambar Jain Sanskruti Nyas Nagpur
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वास्तु
चिन्तामणि
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कभी - कभी ऐसा अवसर आता है कि अपनी वास्तु से लगी हुई रिक्त भूमि या वास्तु विक्रयार्थ उपलब्ध होती है। ऐसी रिक्त भूमि या वास्तु खरीदकर अपनी पूर्व वास्तु में सम्मिलित करने से वास्तु की स्थिति बदल जाती हैं। इसका वास्तुशास्त्र की अपेक्षा से परिणाम का अध्ययन करने के उपरांत ही ऐसी भूमि या वास्तु का क्रय करना उचित है।
गेहाउ वामदाहिण अग्गिम भूमी गहिज्ज जइ कज्जं । पच्छा कहावि न लिज्जइ इअ भणियं पुव्वणाणीहिं । । वास्तुसार प्र. 1 गा. 158 यदि किसी विशेष कार्य से अधिक भूमि लेना पड़े तो घर के बायीं सामने अथवा दाहिनी ओर की भूमि लेना चाहिए किन्तु घर के पीछे की भूमि कभी नहीं लेना चाहिए। यह पूर्वाचार्यों ने कहा है ।
अन्य वास्तु शास्त्रियों के मतानुसार जमीन के पूर्व उत्तर या ईशान दिशा में कोई जमीन मिलती है तो उसे अवश्य लेना चाहिए। उत्तरपूर्व में विस्तार होने के कारण यह गृहस्वामी के लिए यश, प्रतिष्ठा एवं समृद्धि का कारण बनती है। दक्षिण एवं पश्चिम की जमीन बिना मूल्य भी मिलती हो तो नहीं लेना चाहिए।
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वास्तु विस्तार प्रकरण Extension of Vaastu
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विस्तार