Book Title: Vastu Chintamani
Author(s): Devnandi Maharaj, Narendrakumar Badjatya
Publisher: Pragnyashraman Digambar Jain Sanskruti Nyas Nagpur
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वास्तु चिन्तामणि
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प्रासादों, भवनों, आवासगृहों का निर्माण किया जाता था। नांदेयों पर पुलों का निर्माण होने लगा। धार्मिक स्थानों, जिनालयों, धर्मशालाओं, नाट्यशालाओं आदि का निर्माण होने लगा। प्रथमानुयोग के शास्त्रों का अध्ययन करने पर हम पाते हैं कि प्राचीन काल की वास्तु संरचनाएं अद्वितीय कला एवं स्थापत्य का अनूठा संगम थी। इन शास्त्रों में भवनों की कलाकारी का वर्णन तो है ही साथ ही दिशा, धरातल, द्वार, कक्ष, ऊंचाई, अनुपात आदि का विस्तृत विवरण भी उपलब्ध होता है।
युग के प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ ऋषभदेव स्वामी को तपस्या के उपरान्त केवलज्ञान की प्राप्ति हुई। केवलज्ञान का अर्थ है ऐसा ज्ञान जिसमें सारे विश्व की अर्थात् तीनों लोकों के सभी चराचर पदार्थों की भूत, भविष्य, वर्तमान तीनों काल की समस्त पर्यायों को एक साथ हथेली में रखे आंवले की भांति स्पष्ट जाना जाता। हो। तीर्थकर भगवन्त को केवलज्ञान प्राप्त होने के उपरान्त उनकी धर्मसभा की रचना होती है। यह धर्मसभा विश्व की एकमात्र अतुलनीय अद्वितीय संचरना होती है। सौधर्म स्वर्ग के इन्द्र की आज्ञा से कुबेर इस सभा की रचना करता है। अशोकवृक्ष, तीन छत्र सिंहासन, भामंडल, दिव्यध्वनि, पुष्प-वृष्टि चौंसठ चंवर, देव इंदुभि इन अष्ट प्रातिहार्यों से संयुक्त जिनेन्द्र प्रभु की दिव्य वाणी का प्रसार प्रति दिन चार समय होता है। भगवान की इस दिव्य वाणी का प्रसार इस भांति होता है कि बारह सभाओं में बैठे हुए सभी जाति के प्राणियों को यह वाणी स्पष्ट सुनाई पड़ती है तथा इसका विस्तार से विवेचन गणधर देव आचार्य करते हैं। इस समवशरण सभा में तीर्थंकर प्रभु का आसन मध्य में होता है तथा गोलाकृति में चारों ओर बारह सभाओं में देव, देवियां, मनुष्य, स्त्रियां, मनि, आर्यिका एवं तिर्यंच बैठकर दिव्य वाणी का श्रवण करते हैं। तीर्थंकर प्रभु का मुख चारों ओर से श्रवणकर्ता को अपनी ओर दिखता है। बारह कक्षों के बाहर नाटयरंग, नृत्यशाला, सरोवर, वाटिका आदि का निर्माण मनोरंजन के लिए होता है। बीस सहस्त्र सीढ़ियों से युक्त यह
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नहाय