Book Title: Vastu Chintamani
Author(s): Devnandi Maharaj, Narendrakumar Badjatya
Publisher: Pragnyashraman Digambar Jain Sanskruti Nyas Nagpur
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वास्तु चिन्तामणि
इन खण्डों में वास्तुशास्त्र के मूल नियमों को ध्यान में रखकर ही वास्तु संरचना का निर्माण किया जाना उचित है। प्रस्तुत खण्ड में आधुनिक संदर्भ में भूतल की अपेक्षा, निर्माण कार्य की अपेक्षा, प्रवेश की अपेक्षा तथा भार्गारम्भ की अपेक्षा उपयुक्त संकेत देने का प्रयास किया गया है । यथासंभव पुरुषार्थ करके ऐसी वास्तु संरचना का निर्माण करना उचित है जो कि नियमानुकूल हो । कुछ स्थलों पर प्राकृतिक बाधाएं भी आ सकती हैं जिनके कारण भूखण्ड स्वामी विवश हो जाता है। परिस्थिति एवं शक्ति के अनुरूप सत्पुरुषार्थ करना ही ऐसे अवसरों पर है। में चाहे चबूतरा बनाना हो या सीढ़ी, दरवाजा बनाना हो या खिड़कियां सर्वत्र विवेक की आवश्यकता है। दुकान, भवन, उद्योग एवं व्यापारिक संकुल ( काम्प्लेक्स) आदि सभी प्रकार के निर्माणों के संदर्भ में भी यही बात ध्यान में रखना चाहिए।
मूल सिद्धांत यही है कि पूर्व एवं उत्तरी दिशा में तल नीचा हो तथा निर्माण कार्य की ऊंचाई इन दिशाओं में नीची हो। इन दिशाओं में कम निर्माण करना चाहिए तथा अधिक रिक्त स्थान छोड़ना चाहिए। सड़कों की अपेक्षा से विभक्त इन भूखण्डों में इसी मूल भावना को ध्यान में रखकर आधुनिक परिप्रेक्ष्य में यथोचित संकेत देने का उपक्रम किया गया है। इतना ध्यान में रखना आवश्यक है कि पुराने भवनों में सुधार करते समय कम से कम तोड़-फोड़ की जाना चाहिए। यथासंभव वर्तमान परिस्थिति में दिशाओं के संतुलन के अनुरूप बाह्य व आंतरिक साज-सज्जा एवं सामान की स्थिति में परिवर्तन करके अपनी वास्तु को नियमानुकूल बनाने का प्रयास करना उचित है।