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अहोरात्र की न्यूनता जाननी चाहिए, अर्थात् चौदह दिन का पक्ष जानना चाहिए। ..
टीका-प्रस्तुत गाथा में चौदह दिन का पक्ष बताते हुए यह कहा गया है कि आषाढ़ आदि मासों के कृष्ण पक्ष में एक अहोरात्र का क्षय कर देना चाहिए। इस प्रकार एक अहोरात्र के कम होने से चौदह दिन का पक्ष स्वतः ही सिद्ध हो जाता है। यह जो क्षय-विधि का प्रतिपादन किया गया है, वह व्यवहार को लेकर किया गया है और निश्चय से तो गणना का प्रकार बृहद्वृत्तिकार ने नियुक्ति गाथा की व्याख्या में जो दिया है, वही उपयुक्त है।
इस प्रकार प्रथम पौरुषी में प्रतिलेखना आदि क्रियाओं का विधान और पौरुषी के प्रमाण की विधि आदि के सम्बन्ध में वर्णन किया गया है। अब उसके परिज्ञान के विषय में कहते हैं, यथा
जेट्ठामूले आसाढसावणे, छहिं अंगुलेहिं पडिलेहा । अट्ठहिं बीयतियम्मि, तइए दस अट्ठहिं चउत्थे ॥ १६ ॥... ज्येष्ठामूले आषाढे श्रावणे, षड्भिरंगुलैः प्रतिलेखा ।
अष्टाभिर्द्वितीयत्रिके, तृतीये दशभिरष्टभिश्चतुर्थे ॥ १६ ॥ पदार्थान्वयः-जेट्ठामूले-ज्येष्ठ-मूल, आसाढ-आषाढ़, सावणे-श्रावण में, छहिं-छ:, अंगुलेहि-अंगुलों से, पडिलेहा-प्रतिलेखना का समय होता है, बीय-द्वितीय, तियम्मि-त्रिक में, अट्ठहिं-आठ अंगुलों से, तइए-तृतीय त्रिक में, दस-दश अंगुलों से, चउत्थे-चतुर्थ त्रिकं में, अट्ठहिं-आठ अंगुलों से-पादोन पौरुषी का कालमान होता हैं।
मूलार्थ-प्रथम त्रिक में छः अंगुल का प्रक्षेप करने से, द्वितीय त्रिक में आठ अंगुल का प्रक्षेप करने से, तीसरे त्रिक में दस और चौथे त्रिक में आठ अंगुल का प्रक्षेप करने से पादोन-पौरुषी होती है।
टीका-प्रस्तुत गाथा में पादोन पौरुषी के ज्ञान का प्रकार बताया गया है। सर्व साधारण के ज्ञानार्थ
१. अयणाईय दिणगणे अट्ठगुणेणेगट्ठि भाइए लर्छ। उत्तर-दाहिणमाई उत्तरपयसोज्झ पक्खेवो'।।
अत्र चायनः उत्तरायणं दक्षिणायने च तस्यातीतदिनानि अतिक्रान्तदिवसास्तेषां गणः-समूहोऽयनातीतदिनगणः, स चोत्कृष्टतस्त्र्यशीतिशतं, तच्चाष्टगुणितं जातानि चतुर्दशशतानि चतुर्षष्ट्यधिकानि, तत्र चैकषष्ट्याभागे हते लब्धानि चतुर्विंशतिरंगुलानि। तत्रापि द्वादशभिरंगुलैः पदमिति जाते द्वे पदे एतयोश्च। 'उत्तर दाहिणमाई' त्ति-उत्तरायणादौ दक्षिणायनादौ च 'उत्तरपद' त्ति-उत्तरपदयोः। 'सोज्झ' त्ति-शुद्धि प्रक्षेपश्च, तत्र हि उत्तरायण-प्रथम-दिने चत्वारि पदान्यासन्, ततस्तन्मध्यात् पदद्वयोत्सारणे जाते कर्कट-संक्रान्ति-दिने द्वे पदे, दक्षिणायनाद्यदिने तु द्वे पदे अभूतां, तन्मध्ये च द्वयोः क्षिप्तयोर्जातानि मकरसंक्रान्तौ चत्वारि पदानि। इदं चोत्कृष्ट-जघन्य-दिनयोः पौरुषी मानं मध्यमदिनेष्वप्यभिहितं नीतितः सुधिया भावनीयमिति।
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [३०] सामायारी छव्वीसइमं अज्झयणं ।