Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charit Part 07
Author(s): Surekhashreeji Sadhvi
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 18
________________ उसी समय यह समाचार जानकर चित्रमुनि भद्रहस्ति की भांति मधुर संभाषण द्वारा शांत करने के लिए संभूतमुनि के समीप आए। इसके पश्चात् मेघ के जल की बाढ़ से जैसे पर्वत का दावानल बुझ जाता है, वैसे ही चित्रमुनि के शास्त्रानुसारी वचनों से संभूतमुनि का कोप शांत हो गया । तीव्र क्रोध और तप से मुक्त हुए वे महामुनि क्षय से पूर्णिमा के चंद्र के समान प्रसन्नता को प्राप्त हुए। फिर सभी लोग उनको वंदना करके खमाकर वहाँ से वापिस लौटे। चित्रमुनि संभूतमुनि को उद्यान में ले गये। वहाँ जाने के पश्चात् वे पश्चात्ताप करने लगे कि मात्र आहार के लिए घर घर भ्रमण करने के कारण दुःख का सामना करना पड़ता है। इस शरीर का आहार से पोषण करने पर भी परिणामस्वरूप अंत में तो नाशवंत है । तब योगियों को शरीर की एवं आहार की क्या जरूरत है ? ऐसा चित्त में निश्चय करके संलेखना पूर्वक दोनों मुनियों ने चतुर्विध आहार का ही पच्चक्खाण (त्याग) कर लिया । (गा. 79 से 85) इधर सनत्कुमार राजा ने आदेश दिया कि मेरे होने पर भी उन साधु को जिसने पराभव किया हो, उन्हें खोजकर लाओ। तब किसी ने आकर नमुचि मंत्री के लिए सूचित कर दिया । पूज्यजनों की जो पूजा करता नहीं वरन् इससे विपरीत उनका हनन करता है, वह महापापी है। ऐसा कह राजा ने नमुचि को चोर की भांति बांधकर बुलवाया। अब कोई भी इस प्रकार साधु का पराभव नहीं करे, ऐसा विचार करके शुद्ध बुद्धि वाले सनत्कुमार चक्रवर्ती ने बंधन की स्थिति में ही नगर के मध्य में उसे घुमाकर मुनि के पास लेकर आए। नमन करते हुए राजा ने दोनों मुनियों को वंदना की । तब वाम हाथ से मुखवस्त्रिका द्वारा मुख को ढंकते हुए और दक्षिण भुजा को ऊंचा करते हुए वे दोनों मुनि बोले कि जो अपराधी होता है, वह स्वयमेव अपने कर्म के फल का भाजन होता है । फिर सनत्कुमार राजा ने उन मुनि को नमुचि मंत्री को बताया। उस बंधनग्रस्त नमुचि को गरूढ़ को सर्प के समान सनत्कुमार से पंचत्व के योग्य भूमिका को प्राप्त हुए, उसे मुनियों ने छुड़ा दिया। तब उस कर्मचांडाल को जातिचांडाल के समान राजा ने नगर से बाहर निकाल दिया, क्योंकि गुरु का शासन मानने योग्य है । इधर चौंसठ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित ( नवम पर्व ) [7]

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