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मेरा मिलाप कराया है। अतः इसका क्या अपराध है? कुछ भी अपराध नहीं है। तब बंधुदत्त ने चंडसेन को कहकर अन्य दूसरे जो पुरुष बलिदान के लिए कैद करके लाए थे, उनको छुड़ा दिया। तब चंडसेन को पूछा कि तुमने ऐसा काम किसलिए किया? तब भीलों के राजा चंडसेन ने पुरुषबलि की मानता की विगत कह सुनाई। यह सुनकर बंधुदत्त बोला कि हे चंडसेन! जीवघात द्वारा पूजा करना योग्य नहीं है, अतः अब पुष्पादि द्वारा देवी पूजा करना। आज से ही तुम हिंसा, परधन और परस्त्री का त्याग करो। मृषावाद छोड़ दो एवं संतोष के पात्र बनो। चंडसेन ने वैसा करना कबूल किया। उस समय देवी प्रकट होकर बोली कि आज से पुष्पादि पदार्थों के द्वारा ही मेरी पूजा करना। ये सुनकर अनेक भी भद्रक भावी हुआ।
(गा. 235 से 243) प्रियदर्शना ने बालपुत्र को बंधुदत्त को दिया। बंधुदत्त ने धनदत्त को दिया एवं अपनी पत्नि को कहा कि ये मेरे मामा है। तत्काल प्रियदर्शना ने वस्त्र ढककर मामा श्वसुर को प्रणाम किया। धनदत्त ने आशीष देकर कहा कि इस पुत्र का नामकरण करना चाहिये। तब यह पुत्र जीवितदान दिलाने में बंधुओं को आनंददायक हुआ है, ऐसा सोचकर उसके माता पिता ने उसका बांधवानंद ऐसा नाम रखा। किरातराज चंडसेन मामा सहित बंधुदत्त को अपने घर ले जाकर भोजन कराया और उनका लूटा हुआ सर्व धन उनको अर्पण किया। पश्चात् अंजलीबद्ध होकर चित्रक का चर्म, चमरी गाय के बाल, हाथी दांत और मुक्ताफल आदि की उन को भेंट दी। बंधुदत्त ने उन कैदी पुरुषों को यथा योग्य दान देकर विदा किया। और धनदत्त को द्रव्य के द्वारा कृतार्थ करके उनके घर भेजा।
(गा. 244 से 252) समर्थ बंधुदत्त प्रियदर्शना और पुत्र सहित चंडसेन को लेकर नागपुरी आया। उसके बंधुजन प्रसन्न होकर सामने आए। राजा ने बहुमानपूर्वक हस्ति पर आरुढ करवा कर उसको नगर प्रवेश कराया। विपुल दान देता हुआ बंधुदत्त अपने घर आया एवं भोजनोपरान्त बंधुओं को अपना सर्व वृत्तान्त
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (नवम पर्व)