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___ यह सुनकर मंत्री ने संन्यासी को छोड़ दिया और उन मामा भानजे को याद किया एवं विचार किया कि हो सकता है उन्होंने अनजाने में वह रत्नकरंडक लिया लगता है। परन्तु भय के कारण ठीक से जवाब न दे सके हो। इसलिए उनको अभय देकर पुनः पूडूं। तब उन्होंने जो यथार्थ था, वह बता दिया। तब नीतिमान मंत्री ने उनको भी छोड़ दिया एवं उनसे खमाया। वहाँ से छूटकर दो दिन वहाँ रहकर वे आगे चले। तब तीसरे ही दिन उस चण्डसेन के पुरुष जो बलिदान के लिए पुरुष शोध रहे थे, उनके हाथ लग गए तो उनको भी अन्य बंदीवान् को साथ लेकर चंडसेना देवी के पास बलिदान के लिए लाए। इधर चंडसेन दासी और पुत्र सहित प्रियदर्शना को लेकर चंडसेन देवी का अर्चन करने के लिए आया। उस समय इस भयंकर देवी को देखने में वणिक् पुत्री समर्थ नहीं होगी, इसलिए प्रियदर्शना के नेत्रों को वस्त्र से ढक दिया। पश्चात् चंडसेन ने स्वयं पुत्र को लेकर नेत्र की संज्ञा से बलिदान के पुरुषों को लाने का सेवकों से कहा। दैवयोग से सर्वप्रथम बंधुदत्त को ही लाया गया। तब पुत्र से देवी को प्रणाम करवाकर रक्तचंदन का पात्र हाथ में देकर प्रियदर्शना को कहा कि देवी की पूजा करो। निर्दय चंडसेन ने म्यान में से खड्ग निकाला।
(गा. 226 से 234) उस समय प्रियदर्शना दीन होकर विचार करने लगी कि मुझे धिक्कार हो, क्योंकि मेरे लिए ही इस देवी को पुरुष का बलिदान दिया जा रहा है। तो इसमें मेरी ही अपकीर्ति है तो ऐसी अपकीर्ति किस लिए लेनी? अरे क्या मैं निशाचरी हूँ। उस वक्त शुद्ध बुद्धि वाला बंधुदत्त मृत्यु को नजदीक आया जानकर नवकार मंत्र का परावर्तन करने लगा। नवकार मंत्र की ध्वनि को सुनकर प्रियदर्शना ने शीघ्र ही नेत्र उघाड़े। वहाँ तो अपने ही पति को अपने सामने पाया। तब उसने चंडसेन से कहा कि 'हे भ्राता! अब तुम सत्यप्रतिज्ञ हुए हो, क्योंकि ये तुम्हारे बहनोई बंधुदत्त ही हैं। तब चंडसेन बंधुदत्त के चरणों में गिरकर बोला कि मेरा अज्ञानपने में हुआ अपराध क्षमा करो। आप मेरे स्वामी हो और अब आप मुझे आज्ञा दो। बंधुदत्त ने हर्षित होकर प्रियदर्शना को लक्ष्य करके कहा कि इस चंडसेन ने तो तुम्हारा और त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (नवम पर्व)
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