Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charit Part 07
Author(s): Surekhashreeji Sadhvi
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 124
________________ कह सुनाया। पर अंत में उसने सर्व को ज्ञात कराया कि 'आज तक का मुझे जो अनुभव हुआ है, उस से कहता हूँ कि 'श्री जिनशासन बिना सर्व असार है। बंधुदत्त की ऐसी वाणी से सर्वजन जिनशासन में अनुरक्त हुए। बंधुदत्त ने चंडसेन का सत्कार करके उसको विदा किया और स्वयं बारह वर्ष तक सुखपूर्वक रहा। (गा. 253 से 257) एक समय शरद् ऋतु में पार्श्वप्रभु वहाँ समवसरे। बंधुदत्त विपुल समृद्धि के साथ प्रियदर्शना और पुत्र को लेकर प्रभु को वंदन करने गये। प्रभु को वंदन करके देशना सुनी। बंधुदत्त ने प्रभु से पूछा कि 'हे प्रभो! मेरी छः स्त्रियाँ विवाहोपरान्त किस कर्म के कारण मृत्यु को प्राप्त हुई। इस प्रियदर्शना का मुझे क्यों विरह हुआ? मुझे दो बार क्यों बंदीवान् होना पड़ा? वह कृपा करके कहो।' प्रभु ने फरमाया कि पूर्व में इस भरतक्षेत्र में विध्याद्रि में शिखासन नाम का तू भील राजा था।' तू हिंसा में रत और विषयप्रिय था। यह प्रियदर्शना उस भव में तेरी श्रीमती नाम की स्त्री थी। उसके साथ विलास करता हुआ, तू पर्वत के कुंजगृह में रहता था। एक बार कुछ साधुओं का वृंद मार्ग भ्रष्ट होकर अटवी में इधर उधर भ्रमण कर रहा था। वे तेरे कुंजगृह के पास आए। उनको देखकर तेरे हृदय में दया आई। तूने जाकर उनको पूछा कि 'आप इधर क्यों घूम रहे हैं ?' वे बोले कि हम मार्ग भटक गए हैं। तब श्रीमती ने तुमको कहा कि इन मुनियों को फलादिक का भोजन कराने के पश्चात् मार्ग पर भेज दो क्योंकि यह अटवी दुरुत्तरा है। तुमने कंद फलादि लाकर उनके समक्ष रखे। मुनियों ने कहा कि 'ये फल हमको कल्पते नहीं है, जो वर्ण, गंध, रसादि से रहित हो, वह हमको दो।' जो बहुत काल पहले लिया हो, वैसा नीरस (अचित) फलादि हमको कल्पता है। यह सुनकर वह वैसे फलादि लाकर उनको प्रतिलाभित किया। फिर साधुओं को मार्ग बताया। तब उन्होंने धर्म सुनाकर पंच परमेष्ठी नमस्कार रूप महामंत्र देकर कहा कि 'हे भद्र! एक पक्ष में मात्र एक दिन सर्व सावध कर्म छोड़कर एकान्त में त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (नवम पर्व) [113]

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