Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charit Part 07
Author(s): Surekhashreeji Sadhvi
Publisher: Prakrit Bharti Academy

View full book text
Previous | Next

Page 120
________________ बार चोर बुद्धि से पकड़े हुए और दीन बदन वाले कितने ही पुरुष दिखाई दिये। उसे देखकर ‘यह बड़ा चोर है, अतः इसे मार डालो।' ऐसा वह बोला। तब यह सुनकर नजदीक में रहे एक मुनि ने कहा, अरे! यह कैसा कष्टकारी अज्ञान है ? यह सुनकर मैंने नमस्कार करके मुनि को पूछा कि क्या अज्ञान है? तब मुनि ने कहा 'दूसरों को अति पीड़ाकारी वचन बोलना और झूठा दोषारोपण देना, यही अज्ञान है। पूर्व कर्म के परिपक्क हुए विपाक से ये मनुष्य तो विचारे दुःख में पड़े हैं। उनको देखें, पहचाने बिना यह बड़ा चोर कहने को झूठा दोष तू किसे देता है ? पूर्व जन्म के किये कर्म का अवशेष फल तुझे थोड़े समय मिलेगा, अतः तू दूसरों के ऊपर मिथ्या दोषारोपण मत कर। पश्चात् मैंने उन मुनि से पूछा कि मेरे पूर्व कर्म का अवशेष फल क्या है? तब अतिशय ज्ञानी और करुणानिधि उन मुनि ने कहा, इस भरतक्षेत्र में गर्जन नामक नगर में आषाढ़ नामका एक ब्राह्मण था। उसके अच्छुका नाम की स्त्री थी। इस भव से पाँचवें भव में तू उनका चन्द्रदेव नाम का पुत्र था। तेरे पिता ने तुझे खूब पढ़ाया, तब तू विद्वान होने से वहाँ के वीर राजा को मान्य हो गया। उस समय वहाँ एक योगात्मा नाम के सद्बुद्धिमान निष्पाप संन्यासी रहते थे। वहाँ के विनीत नाम के सेठ के वीरमती नाम की बाल विधवा पुत्री थी। वह एक सिंहल नाम के माली के साथ भाग गई। उस योगात्मा संन्यासी की वह पूजा करती थी। दैवयोग से निःसंगपने से वह संन्यासी भी उस दिन कहीं चला गया। प्रथम, तो वीरमती भाग गई, ऐसा लोग कहने लगे। परन्तु योगात्मा के भी चले जाने पर सर्वत्र यह हो गया कि जरूर वीरमती योगात्मा के साथ भाग गई। ये समाचार राजदरबार में भी पहुंचे। यह सुनकर राजा ने कहा योगात्मा संन्यासी ने तो स्त्री आदि त्याग किया था। तब तूने जाकर कहा कि वीरमती उसकी पूजा करती थी, अतः दोनों भाग गए। यह बात सर्वत्र प्रसर गई तो योगात्मा पांखडी माना जाने लगा। यह सुनकर लोग उसके वैसे दोष से धर्म से श्रद्धा रहित हुए और दूसरे संन्यासियों ने योगात्मा को अपने समुदाय से अलग कर दिया। ऐसे दुर्वचन से निकाचित तीव्र कर्म बंध से तू मर कर कोल्लाक नाम के स्थान पर बकरा बना। पूर्व कर्म के दोष से तेरी जिह्वा कुंठित हो गई। वहाँ से त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (नवम पर्व) [109]

Loading...

Page Navigation
1 ... 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130