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इस प्रकार चंडसेन विचार कर ही रहा था कि द्वारपाल ने आकर बधाई दी कि प्रियदर्शना ने पुत्र को जन्म दिया। पल्लि पति ने हर्षित होकर द्वारपाल को पारितोषिक दिया। तब पद्म अटवी पद्माटवी की देवी को चंडसेन ने कहा कि यदि मेरी बहन प्रियदर्शना का पुत्र के साथ एक मास तक कुशल पूर्वक रहेगी, तो मैं दस पुरुषों का बलिदान दूंगा। परन्तु जब प्रियदर्शना ने कुमार के साथ पच्चीस दिन व्यतीत किये, तब चंडसेन ने प्रत्येक दिशा में से बलिदान योग्य पुरुषों को पकड़कर लाने के लिए सेवक पुरुषों को भेजा।
(गा. 182 से 184) बंधुदत्त ने मामा के साथ कारागृह में नारकी की आयुष्य सम छः महिने निर्गमन किये। इतने में एक दिन राजसुभटों ने रात्रि में एक बड़े सर्प को पकड़े वैसे विपुल द्रव्य के साथ एक संन्यासी को पकड़ा एवं उसे बांधकर मंत्री को सुपुर्द किया। संन्यासी के पास इतना द्रव्य कहाँ से हो? ऐसा विचार करके निश्चय किया कि यह भी जरूर कोई चोर ही होगा। तब उसे मारने का आदेश दिया। जब उसे वध स्थान ले जाया जा रहा था, तब उसने पश्चाताप पूर्वक सोचा कि मुनि का वचन अन्यथा नहीं होता। ऐसा सोचकर उसने आरक्षकों को कहा- मेरे सिवा इस शहर में किसी ने चोरी नहीं की है। मैंने चोरी कर करके पर्वत, नदी, आराम आदि भूमियों में धन छुपा दिया है। अतः जिस जिस का धन हो, उसे लौटा दो और मुझे शिक्षा (दंड) दो। रक्षकों ने ये समाचार मंत्री को दिये। उसके बताये स्थानों से धन मंगवाया तो उस रत्नकरंडक के अतिरिक्त सारा धन मिल गया। तब मंत्री ने उस संन्यासी को कहा कि 'हे कृतिन्! तेरे दर्शन और तेरी आकृति के विरुद्ध तेरा आचरण क्यों है?' यह तू निर्भय होकर कह। संन्यासी बोला कि 'जो विषयासक्त हों
और अपने घर में निर्धन हों, उसे ही ऐसा काम करना योग्य लगता है। इस विषय में यदि आपको आश्चर्य लगता हो तो मेरा विशेष वृत्तांत सुनो।
(गा. 185 से 193) पुंड्रवर्धन नगर में सोमदेव नामक ब्राह्मण का मैं नारायण नाम का पुत्र हूँ। जीवघात के मार्ग से स्वर्ग मिलता है। ऐसा लोगों को कहता था। एक
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (नवम पर्व)