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थे। इतने में आकाश में अष्टापद गिरि जाते हुए देवतागण उनको दिखाई दिये। तब हमको और उनके मित्र अग्निशिख को लेकर वे तीर्थयात्रा करने चले। 'इष्टजनों को अवश्य ही धर्म कार्य में जोड़ना चाहिए।' हम अष्टापद गिरि पर पहुंचे, तब वहाँ मणिनिर्मित, अपने अपने मान और वर्ण सहित चौवीस तीर्थंकरों की प्रतिमाओं के दर्शन हुए। फिर यथाविधि स्नान विलेपन और पूजा करके तीन प्रदक्षिणा पूर्वक और समाहित रूप से उनको वंदना की। फिर हम प्रासाद में से निकलकर आगे चले। तब रक्त अशोकवृक्ष के नीचे मूर्तिमान तप और शम हो, वैसे दो चारण श्रमण मुनि को विराजमान देखा। उनको नमस्कार करके उनके समक्ष बैठकर अज्ञान रूप अंधकार को छेदने में कौमदी (चंद्रिका) जैसी धर्मदेशना श्रद्धापूर्वक हमने श्रवण की। देशना के अंत में अग्निशिखा ने पूछा कि 'इन दोनों कन्याओं का पति कौन होगा?' वे बोले कि 'जो इनके भाई को मार डालेगा, वह इनका भावि पति होगा। मुनिश्री के ऐसे वचनों से 'हिम से चंद्र की भांति हमारे पिता ग्लानि से भर गये।' तब हमने वैराग्यगर्भ वाणी से कहा कि 'हे तात! आपने अभी तो देशना में संसार की असारता के विषय में सुना है, तो अब खेद रूपी शिकारी से किसलिए पराभव को प्राप्त होते हो?' तथा फिर हमको भी ‘ऐसे विषयसुख की जरूरत नहीं है। ऐसा कहकर हम वहाँ से आगये और हम सहोदर बंधु की रक्षा में निरन्तर तत्पर रहे।
(गा. 370 से 383) एक बार हमारे भाई ने घूमते घूमते आपके मामा पुष्पचूल की कन्या पुष्पवती को देखा। उसके अद्भुत रूप लावण्य ने हमारे भाई का मन हर लिया। इसलिए उस दुबुद्धि ने उसका हरण कर लिया। 'बुद्धि कर्मानुसारिणी।' पुष्पवती का हरण करके लाने पर भी उसकी दृष्टि को सहन न कर सकने से वह स्वयं विद्या साधने गया। उसके पश्चात् की वार्ता तो आप स्वयं वस्तुतः जानते ही हो। पश्चात् पुष्पवती ने हमारे पास आकर हमारे भाई के मृत्यु के समाचार हमको दिये एवं धर्माक्षरों से उसने हमारे शोक का निवारण किया।
(गा. 384 से 387)
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (नवम पर्व)