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के लिए निकला। उसने दूर से ही वज्रनाभ मुनि को आते हुए देखा। तब भिक्षु का अपशकुन हुआ ऐसे कुत्सित विचार उसे क्रोध उत्पन्न हुआ। पश्चात् पूर्व जन्म के वैर से अति क्रोधित होता हुआ उस कुरंगक ने दूर से ही धनुष खींच कर हरिण की तरह उस महर्षि पर बाण से प्रहार किया। उसके प्रहार से पीड़ित होने पर भी आर्त्तध्यान से रहित हुए मुनि नमोऽर्हभ्यः' बोलते हुए प्रतिलेखना करके पृथ्वी पर बैठ गये। पश्चात् सिद्ध को नमस्कार करके, सम्यक् आलोचना करके उन मुनि ने अनशन व्रत ग्रहण किया। पश्चात् विशेष प्रकार से ममता रहित होकर सर्व जीवों से क्षमापना की। इस प्रकार धर्मध्यान में परायण होकर मृत्यु के पश्चात् वे मुनि मध्य ग्रैवेयक में ललितांग नाम के परमर्द्धिक देव हुए। कुरंगक भील ने एक ही प्रहार से उनकी मृत्यु देखकर, पूर्वबद्ध बैर के कारण अपने बल संबंधी मद को वहन करता हुआ अत्यन्त हर्षित हुआ। जन्म से मृत्यु पर्यन्त मृगया द्वारा आजीविका चलाने वाला वह कुरंगक भील मर कर सातवीं नरक में रौरव नरकावास में उत्पन्न हुआ।
__ (गा. 190 से 197) इसी जंबूद्वीप के पूर्वविदेह में सुरनगर जैसा पुराणपुर नामका एक विशाल नगर है। उसमें शतकादि राजाओं ने पुष्पमाला के समान शासन को अंगीकार किया है, वैसा कुलिशबाहु नामका इंद्र के समान राजा था। उनके रूप से सुदर्शना (श्रेष्ठ दर्शनवाली) और परम प्रेमपात्र सुदर्शन नामकी मुख्य पटरानी थी। शरीरधारी पृथ्वी के समान उसे रानी के साथ क्रीडा करता हुआ वह राजा द्वितीय पुरुषार्थ को बोध किये बिना विषयसुख को भोगता था। इधर बहुत काल व्यतीत को जाने के पश्चात् वज्रनाभ का जीव देव संबंधी आयुष्य को पूर्ण करके ग्रैवेयक से च्यवकर उस सुदर्शना देवी की कुक्षि में उत्पन्न हुआ। उस समय रात्रि के प्रातःभाग में सुखपूर्वक शयन करती हुई देवी ने चक्रवर्ती के जन्म को सूचित कराने वाले चौदह स्वप्नों का अवलोकन किया। प्रातःकाल में राजा को स्वप्न की बात कहने पर उन्होंने उन स्वप्नों की व्याख्या कह सुनाई। जिन्हें श्रवण करके देवी अत्यन्त हर्षित
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (नवम पर्व)
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