Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charit Part 07
Author(s): Surekhashreeji Sadhvi
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 86
________________ पुरुषोत्तम नाम का उस राजा का मित्र हूँ? और इस वृत्तांत को कहने के लिए ही यहाँ आया हूँ। अब आपको स्वजन और शत्रुजन के संबंध में योग्य लगे वैसा करें। (गा. 95 से 101) इस प्रकार उस पुरुष के वचन सुनकर अश्वसेन राजा भृकुटी से भयंकर नेत्र करके वज्र के निर्घोष तुल्य भयंकर वचन बोले कि “अरे! यह रंक यवन कौन है ?' मेरे होते हुए प्रसेनजित् को क्या भय है ? कुशस्थल की रक्षा करने के लिए मैं स्वयं ही उस यवन पर चढ़ाई करूँगा। इस प्रकार कहकर वासुदेव के तुल्य पराक्रमी अश्वसेन राजा ने रणभेरी का नाद कराया। उस नाद से तत्काल उनका सर्व सैन्य एकत्रित हो गया। उस समय क्रीड़ागृह में क्रीड़ा करते हुए पार्श्वकुमार ने भी उस रणभेरी का नाद और सैनिकों का बहुत कोलाहल श्रवण किया। तब यह क्या? इस प्रकार संभ्रम होकर पार्श्वकुमार पिता के पास आए। वहाँ तो रणकार्य के लिए तैयार हुए सेनापतियों ने उनको देखा। तब पार्श्वकुमार ने पिताश्री को प्रणाम करके कहा कि “हे पिताश्री! जिनके लिए आप जैसे पराक्रमी को भी ऐसी तैयारी करनी पड़े वह क्या दैत्य, यक्ष, राक्षस या अन्य कोई आपका अपराधी है ?' आपके समान या आप से अधिक कोई भी तो दृष्टिगत होता है नहीं। उनके ऐसे प्रश्न से अंगुली से पुरुषोत्तम की ओर अंगुली से इशारा करके राजा ने कहा, कि “हे पुत्र! इस मनुष्य के कहने से प्रसेनजित् राजा की यवन राजा से रक्षा के लिए मेरा जाना आवश्यक है।” कुमार ने पुनः कहा कि “हे पिताश्री! युद्ध में आपके समक्ष कोई देव या असुर भी टिक नहीं सकता, ऐसा कोई नहीं है, तो मनुष्य मात्र यह यवन तो क्या भारी है ?' परंतु उसके सामने आपको जाने की कोई जरूरत नहीं है। मैं ही वहाँ जाऊँगा और दूसरे को नहीं पहचानने वाले को दंड दूँगा। राजा बोले 'हे वत्स! यह तुम्हारा कोई क्रीडोत्सव नहीं है। परंतु कष्टकारी रणयात्रा तुम से कराने का मेरे मन को प्रिय लगता नहीं है। मैं जानता हूँ मेरे कुमार का भुजबल तो तीन जगत् की भी विजय करके में समर्थ है। परंतु तू घर में ही क्रीड़ा करे, यह देखकर मुझे ज्यादा हर्ष होता है। पार्श्वकुमार बोले, “हे पिताजी! युद्ध करना यह त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (नवम पर्व) [75]

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