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मेरे लिए क्रीड़ा रूप ही है । उसमें मुझे कुछ भी प्रयास नहीं करना पड़ेगा । इसलिए हे पूज्य पिताजी! आप यहीं पर ही रहें ।" पुत्र के अति आग्रह से उनके भुजबल के ज्ञाता अश्वसेन राजा ने उनके अनिंद्य वचन को स्वीकारा। पश्चात् पिता ने जब आज्ञा दी, तब पार्श्वकुमार शुभमुहूर्त में हाथी पर आसीन होकर उस पुरुषोत्तम के साथ उत्सव सहित नगर से बाहर निकले । प्रभु ने एक प्रयाण किया, तब वहाँ तो इंद्र के सारथी आकर रथ में से उतर कर अंजली जोड़कर कहने लगा- " हे स्वामिन् “आपको क्रीड़ा से भी युद्ध करने की इच्छा वाले जानकर यह इंद्र ने यह संग्राम योग्य रथ लेकर मुझे सारथी होने के लिए आपके पास भेजा है । हे स्वामिन् आपके पराक्रम के समक्ष तीन जगत् भी तृणवत् हैं, यह जानते हैं । तथापि यह समय ज्ञात करके वे अपनी भक्ति प्रस्तुत कर रहे हैं।" तब पृथ्वी को भी स्पर्श नहीं कर रहे और विविध आयुधों से परिपूर्ण उस महारथ में प्रभु इंद्र के अनुग्रह से आरुढ हुए ।
(गा. 102 से 120 )
सूर्य सम तेजस्वी पार्श्वकुमार आकाशगामी रथ द्वारा खेचरों से स्तुत्य आगे बढ़ने लगे। प्रभु को निहारने के लिए बारम्बार ऊंची ग्रीवा करके रहे हुए सुभटों से सुशोभित प्रभु का सर्व सैन्य भी प्रभु का अनुकरण करता पीछेपीछे चला। प्रभु क्षणभर में वहाँ पहुँचने में और एकाकी ही उस यवन पर विजय प्राप्त करने में समर्थ थे परंतु सैन्य के उपरोध से वे छोटे छोटे प्रयाण कर रहे थे । कुछेक दिनों में कुशस्थल के समीप आ पहुँचे। वहाँ उद्यान में देवों द्वारा विकुर्वित सप्त मंजिले महल में आकर रहने लगे । क्षत्रियों की रीति के अनुसार एवं साथ ही दयानिधान प्रभु ने प्रथम यवनराजा के पास एक सद्बुद्धि निधान दूत को शिक्षा देकर भेजा। उस दूत ने यवन राजा के पास जाकर उसे प्रभु की शक्ति से विदित कराया और कहने लगा कि "हे राजन! श्री पार्श्वकुमार अपने श्रीमुख से तुमको इस प्रकार आदेश कर रहे हैं कि इन प्रसेनजित् राजा ने मेरे पिता का शरण स्वीकार किया है, अतः उनको रोध से और विरोध से छोड़ दो। मेरे पिता तो स्वयं युद्ध के लिए आ रहे थे,
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित ( नवम पर्व )
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