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जिनदत्त सेठ ने बंधुदत्त और खेचरों को गौरवता से स्नान, आसनादि द्वारा सत्कार करके उनके आगमन का कारण पूछा। तब 'यह काम ही प्रयोजन है, परन्तु जिस काम का यह प्रयोजन है, वह अनृत (असत्य) कहना पड़े, वैसा है। ऐसा विचार करके वे इस प्रकार बोले 'हम तीर्थयात्रा की धारणा करके रत्नपर्वत से निकले हैं। प्रथम तो हम उज्जयन्त गये, वहाँ हमने श्री नेमिनाथ प्रभु को वन्दना की ।' वहाँ इस बंधुदत्त श्रेष्ठी ने हमको साधर्मिक जानकर अपने बंधु के समान भोजनादि के द्वारा हमारी भक्ति की । यह बंधुदत्त धार्मिक, उदार, साथ ही वैराग्यवान् है । इससे हमारी इसके साथ और अधिक प्रीति हो गई । यहाँ पार्श्वनाथ प्रभु को वंदन करने के लिए हम उज्जयंत (गिरनार) गिरि से आए हैं। यह बंधुदत्त भी हमारे स्नेह से निमंत्रित होकर हमारे साथ आया है । खेचरों के इस प्रकार के वचन सुनकर और बंधुदत्त को नजरों से देखकर जिनदत्त सेठ ने सोचा कि 'यह वर मेरी पुत्री के योग्य है। तब जिनदत्त सेठ ने आग्रह से उन खेचरों को वहाँ रोका एवं बंधुदत्त को कहा कि 'मेरी पुत्री के साथ विवाह करो। बंधुदत्त ने पहले तो विवाह करने की अनिच्छा का नाटक करके पश्चात् यह बात स्वीकारी। ये समाचार अमितगति ने चित्रांगद को पहुँचाये, तो चित्रांगद जानकर वहाँ आया । तब जिनदत्त ने बंधुदत्त के साथ अपनी पुत्री का विवाह किया । चित्रांगद बंधुदत्त को शिक्षा देकर अपने स्थान पर चला गया।
(गा. 73 से 100)
बंधुत्त प्रियदर्शना के साथ क्रीड़ा करता हुआ वहीं पर ही रहा । उसने वहाँ श्री पार्श्वनाथ प्रभु की रथयात्रा कराई। इस प्रकार धर्म में तत्पर होकर उसने वहाँ चार वर्ष निर्गमन किये। कितना ही काल व्यतीत होने पर प्रियदर्शना ने गर्भ धारण किया। उस समय उसने स्वप्न में मुखकमल में प्रवेश करते हुए एक हाथी को देखा। दूसरे दिन बंधुदत्त ने अपने स्थान की तरफ जाने का विचार अपनी पत्नी को बताया। उसने अपने पिता जिनदत्त को बताया । इसलिए सेठ ने विपुल संपत्ति देकर बंधुदत्त को प्रिया के साथ विदा किया । बंधुदत्त ने 'मैं नागपुरी जाऊँगा' ऐसी अघोषणा कराई । तब अनेक लोग उसके साथ चल दिये। उन सबको बंधु के समान मानकर उनको आगे
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित ( नवम पर्व )
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