Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charit Part 07
Author(s): Surekhashreeji Sadhvi
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 112
________________ उसे पूछा, तब बंधुदत्त ने स्त्री का मरण और जहाज का टूटना इत्यादि सर्व वृत्तान्त अथ से इति तक कह सुनाया। पश्चात् मुनिवर ने उसको प्रतिबोध दिया। तब उसने अपना यहाँ आ जाना सफल माना। इस प्रकार अनुमोदन करते हुए बंधुदत्त ने जैन धर्म को स्वीकार किया। उस समय वहाँ स्थित चित्रांगद विद्याधर ने उसे कहा कि जैन धर्म के स्वीकार ने से अब तुम मेरे साधर्मिक हुए, यह बहुत अच्छा हुआ। अब कहो तो मैं तुमको आकाशगामिनी विद्या दूं। कहो तो तुमको इष्ट स्थान पर पहुँचा दूँ। अथवा कहो तो कोई कन्या से परणा दूं। बंधुदत्त ने कहा कि 'जो तुम्हारे पास विद्या है, वह मेरी ही है और जहाँ ऐसे गुरु के दर्शन होते हैं, वह स्थान ही मुझे इष्ट है। ऐसा कह उसने मौन धारण कर लिया। तब विद्याधर ने सोचा कि 'अवश्य ही यह बंधुदत्त कन्या को चाहता है। क्योंकि उसने इस बात का निषेध किया नहीं है। परन्तु जो कन्या इससे विवाह (परणने) के पश्चात् मृत्यु को प्राप्त न करे, वैसी कन्या को इस महात्मा को दूँ। ऐसा निश्चय करके वह बंधुदत्त को अपने साथ में ले गया और उचित स्नान भोजनादि द्वारा उसकी भक्ति की। पश्चात् चित्रांगद ने अपने सर्व खेचरों को पूछा कि 'भारतवर्ष में तुमने ऐसी कोई कन्या देखी है, जो इस पुरुष के योग्य है ?' यह सुनकर उसके भाई अंगद विद्याधर की पुत्री मृगांकलेखा बोली कि 'हे पिताजी! क्या आप मेरी सखी प्रियदर्शना को नहीं जानते?' वह मेरी सखी कौशांबीपुरी में रहती है, स्त्रीरत्न जैसी रूपवती है और जिनदत्त सेठ की पुत्री है। मैं पूर्व में उसके पास गई थी, उस वक्त किसी मुनि ने उसे उपदेश स्वरूप कहा था, कि 'यह प्रियदर्शना पुत्र को जन्म देकर दीक्षा लेगी यह बात मैंने भी सुनी थी। यह हकीकत सुनकर चित्रांगद ने बंधुदत्त के योग्य प्रियदर्शना को उसे देने के लिए अमितगति आदि खेचरों को आज्ञा दी। तब वे खेचर बंधुदत्त को लेकर कौशांबी नगरी में गये। वहाँ नगर के बाहर पार्श्वनाथ चैत्य से विभूषित उद्यान में निवास किया। पश्चात् बंधुदत्त ने खेचरों के साथ चैत्य में प्रवेश किया। वहाँ पार्श्वनाथ प्रभु को और मुनिभगवन्तों को उसने वंदना की एवं उनके पास धर्मदेशना सुनी। इतने में वहाँ साधर्मी प्रिय जिनदत्त श्रेष्ठी आया। वह सर्व खेचर सहित बंधुदत्त को प्रार्थना करके अपने घर ले गया। पश्चात् त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (नवम पर्व) [101]

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