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इधर बंधुत्त प्रिया का वियोग होने पर हिंतालवन के मध्य में आकर स्वस्थ होकर इस प्रकार चिन्तन करने लगा कि मेरे वियोग से मेरी विशाललोचन प्रिया एक दिन भी जी नहीं सकेगी, वह अवश्य ही मरण शरण हो जाएगी। तो अब मैं किस प्रत्याशा से जीऊँ ? अतः मुझे भी मरण काही शरण हो, क्योंकि उससे मुझे कोई विशेष हानि नहीं है। ऐसा विचार करके वह सप्तछन्द के बड़े वृक्ष के ऊपर चढ़कर फांसी लगाकर मरने को तैयार हुआ । सप्त छंद के वृक्ष के पास आते समय उसे वहाँ एक विशाल सरोवर दिखाई दिया। उसमें प्रिया के विरह से दुःखित ऐसा एक राजहंस उसे दिखाई दिया। अपने समान उसे भी दुःखी और दीन देखकर वह अपार दुःखी हुआ, क्योंकि दुःखी जन की मानसिक पीड़ा को दुःखी जन ही जानते हैं। बंधुत्त वहाँ थोड़ी देर खड़ा रहा। इतने में कमल की छाया में बैठी राजहंसी के साथ उसका मिलाप हुआ। उसका इस प्रकार मिलाप हुआ देखकर बंधुदत्त ने सोचा कि 'जीवित नर को पुनः प्रिया के साथ संगम हो सकता है। इसलिए अभी तो मैं अपनी नगरी में जाऊँ । परन्तु मेरी ऐसी निर्धन स्थिति में वहाँ भी किस प्रकार जाऊँ ? वैसे ही प्रिया के बिना कौशांबी नगरी में भी जाना योग्य नहीं है। इससे तो अभी विशालापुरी में ही जाऊँ । वहाँ मामा के पास से द्रव्य लेकर, उस चोर सेनापति को देकर मेरी प्रिया को छुड़ा लाऊँगा। पश्चात् प्रिया को साथ लेकर नागपुरी जाकर मामा का द्रव्य वापिस लौटा दूँ। सर्व उपायों में यह उपाय ही मुख्य है। ऐसा विचार करके वह बंधुदत्त पूर्व दिशा की ओर चला। दूसरे दिन अति दुःखित स्थिति में वह गिरिस्थल नामक स्थल में आया । वहाँ मार्ग के नजदीक में वृक्षों से ढके हुए एक यक्ष के मंदिर में उसने विश्राम किया । इतने में श्रम से पीड़ित एक राहगीर भी वहाँ आया। उसे बंधुदत्त ने पूछा कि 'तुम कहाँ से आ रहे हो? उसने कहा कि मैं विशालापुरी से आ रहा हूँ। तब बंधुदत्त ने पूछा कि 'वहाँ धनदत्त सार्थवाह कुशल है ना?' तब उस मुसाफिर ने दीन वचनों से कहा कि ' धनदत्त व्यापार करने दूसरे गाँव गया था, इतने में उसका बड़ा पुत्र घर में पत्नी के साथ क्रीड़ा कर रहा था, कि वहाँ से पसार होते हुए उसने वहाँ के राजा की अवगणना की। उस अपराध से क्रोधित हुए
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (नवम पर्व )
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