Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charit Part 07
Author(s): Surekhashreeji Sadhvi
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 114
________________ किया। सन्मार्ग के महापंथ तुल्य बंधुदत्त शनैः शनैः चलता हुआ अनुक्रम से अनर्थ के एक गृहरूप पद्म नाम की अटवी में आया। सार्थ की रक्षा करते करते उसने तीन दिन में उस अटवी का उल्लंघन किया और एक सरोवर के तीर पर आकर पड़ाव डाला। वहाँ सार्थ ने रात्रिवास किया। उस रात्रि के अंतिम प्रहर में चंडसेन नामक एक पल्लिपति ने धाड़ पाड़ी। पल्लिपति के सुभटों ने सार्थ का सर्वस्व लूटकर, प्रियदर्शना का भी हरण करके अपने स्वामी चंडसेन को सौंपी। दीनमुखवाली प्रियदर्शना को देखकर चंडसेन को दया आ गई। उसने सोचा कि 'इस दीन स्त्री को पुनः इसके स्थान पर पहुँचा दूं।' ऐसी चिन्ता करते हुए उसने चूतलता नामकी प्रियदर्शना की दासी को पूछा कि 'यह स्त्री किसकी प्रिया है और किसकी पुत्री है?' यह वृतांत मुझे बता। दासी बोली कि 'यह कौशांबी के निवासी जिनदत्त सेठ की पुत्री है और उसका नाम का प्रियदर्शना है। इतना सुनते ही चंडसेन को मूर्छा आ गई। थोड़ी देर में संज्ञा आने पर उसने प्रियदर्शना को कहा कि 'हे बाला! तेरे पिता ने मुझे पूर्व में जीवितदान दिया था। अतः तू भयभीत मत हो। तू मेरा वृतांत सुन।' मैं चोरों का राजा नाम से प्रख्यात हूँ । एक बार मैं चोरी करने को निकला। प्रदोष काल में वत्सदेश के गिरि नाम के गांव में गया। वहाँ चोर लोगों के साथ मैं मद्यपान करने बैठा। इतने में रक्षकों ने आकर मुझे पकड़ लिया एवं वहाँ के राजा मानभंग के पास मुझे उपस्थित किया। उन्होंने मुझे मार डालने का आदेश दिया। मुझे जब मारने को ले जा रहे थे, उस समय तुम्हारे माता-पिता पौषध करके पारणे के लिए घर जा रहे थे, वे वहाँ से पसार हुए। मेरी हकीकत सुनकर उस कृपालु सेठ ने मुझे छुड़ाया। पश्चात् विपुल वस्त्र-धनादि देकर मुझे विदा किया। इसलिए तू मेरे उपकारी की पुत्री है। मुझे आज्ञा दे कि मैं तेरा क्या काम करूँ? तब प्रियदर्शना बोली कि 'हे भ्राता! तुम्हारी धाड़ पड़ने से वियुक्त हुए मेरे पति बंधुदत्त के साथ मेरा मिलाप करवा दो। मैं ऐसा ही करूँगा। ऐसा कहकर पल्लिवति प्रियदर्शना को लेकर अपने घर आया और जैसे अपने देवता न हो, वैसे अति भक्ति से उसे देखने लगा। बाद में अभयदान द्वारा प्रियदर्शना को आश्वासन देकर चंडसेन स्वयं बंधुदत्त की शोध में निकल पड़ा। (गा. 101 से 121) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (नवम पर्व) [103]

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