Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charit Part 07
Author(s): Surekhashreeji Sadhvi
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 116
________________ राजा ने उसका सर्वस्व लूट लिया, और उसके पुत्र, कलत्र, आदि सर्व कुटुम्ब को कैद कर लिया । धनदत्त घर आया, तब राजा को अर्ज करने पर और अपने पास रहा द्रव्य दंडस्वरूप देने पर और शेष रहे कोटि द्रव्य के लिए वह अपनी बहन के पुत्र बंधुदत्त को शोध में निकला है। राजा ने इसी शर्त से उनको छोड़ा है। इस प्रकार सर्व हकीकत सुनकर बंधुदत्त ने सोचा कि अहो दैव ने यह क्या किया ? जिससे मुझे पूर्ण आशा थी, उसे ही दैव ने व्यसनसमुद्र में धकेल दिया । परन्तु अब तो जो हुआ सो ठीक। अब तो यहाँ रहकर ही मामा की राह देखूं एवं उनसे मिलकर नागपुरी जाकर उनका अर्थ शीघ्र सिद्ध कर दूँ। ऐसा विचार करके वह वहीं पर रहा। (गा. 122 से 141 ) पाँचवें दिन कई जनों की सहायता लेकर सार्थ के साथ खेदयुक्त मनवाला मामा धनदत्त वहाँ आया एवं उसी वन में यक्षमंदिर के समीप एक तमाल वृक्ष के नीचे बैठा । दूर से पहचानने में न आने पर बंधुदत्त उसे पहचानने के लिए समीप में जाकर उनसे पूछा कि 'आप कौन है ?' यहाँ कहाँ से आये हो? और कहाँ जाना है ? वह कहो । धनदत्त बोला- 'हे सुन्दर ! मैं विशालापुरी से आ रहा हूँ और यहाँ से महापुरी नागपुरी जा रहा हूँ । 'बंधुदत्त बोला कि मुझे भी वहाँ ही जाना है । परन्तु वहाँ तुम्हारा संबंधी कौन है ? वह बोला कि 'वहाँ बंधुदत्त नाम का मेरा भगिनेय ( भानजा ) है । बंधुदत्त ने कहा- हाँ, वह मेरा भी मित्र है । तब बंधुदत्त ने अपने मामा को पहचाना। परन्तु अपना परिचय दिये बिना वह उनके साथ हो लिया । पश्चात् उन दोनों ने साथ में भोजन किया। दूसरे दिन प्रातः काल बंधुदत्त शौच हेतु नदी के तीर पर गया । वहाँ एक कदम्ब के गहूवर में रत्न की छायाकली पृथ्वी दिखाई दी। तब उसने तीष्ण शृंग द्वारा वह पृथ्वी खोदी । उसमें से रत्न आभूषणों से परिपूर्ण एक तांबे का करंडक निकला। वह करंडक गुप्त रीति से लेकर बंधुदत्त धनदत्त के पास आया। और करंडक मिलने की सर्व हकीकत कह सुनाई । पश्चात् नम्रता से कहा कि, 'हे मेरे मित्र के मामा! मैंने एक पथिक से आपका सर्व वृत्तांत जान लिया है।' अतः आपके पुण्य से प्राप्त यह करंडक आप ही रखो। हम दोनों यहाँ से विशाला नगरी में जाकर धन देकर कारागृह त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित ( नवम पर्व ) [105]

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