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के परिणाम से अभागी पुरुष का विवाह के पश्चात् दूसरे ही दिन उसकी स्त्री मर जाती है। इस बनाव के पश्चात् बंधुदत्त का हाथ विषमय है ऐसा उसके सिर पर अपवाद (कलंक) आ गया। उसके बाद उसने अनेक कन्याओं की मांग की और विपुल द्रव्य देने पर भी उसे दूसरी स्त्री प्राप्त नहीं हुई। इस प्रकार स्त्री रहित होने पर स्त्री के बिना यह संपत्ति मेरे किस काम की? ऐसी चिन्ता करते हुए बंधुदत्त कृष्ण पक्ष के चन्द्र के समान दिन पर दिन क्षीण होने लगा। उसे दुर्बल हुआ देखकर, दुःखी हुआ धनपति सेठ ने विचार किया कि 'मेरा पुत्र इस चिन्ता में ही मर जाएगा।' इस दुःख के विस्मरण हेतु इसे किसी व्यापार में लगा दूं। ऐसा निर्णय करके धनपति श्रेष्ठी ने बंधुदत्त को बुलाया और उसे आज्ञा दी कि 'हे वत्स! तू व्यापार करने के लिए सिंहलद्वीप या अन्य किसी द्वीप में जा। पिताजी की आज्ञा से बंधुदत्त बहुत सा किराना लेकर जहाज पर चढ़कर समुद्र का उल्लंघन करके सिंहलद्वीप आया। किनारे पर उतरकर सिंहलपति के पास जाकर उत्तम उपहार देकर उनको प्रसन्न किया तो सिंहलराज ने उसका कर माफ कर दिया एवं प्रसन्न होकर उसे विदा किया। वहाँ सर्व किराना बेचकर मन मुताबिक लाभ प्राप्त करके, वहाँ से दूसरा किराना खरीदकर अपने नगर की ओर चला। समद्रमार्ग से चलते हुए अनुक्रम से वह अपने देश के नजदीक आ गया। किन्तु उसी समय प्रतिकूल पवन में डोलता हुआ उसका जहाज टूट गया। परन्तु अनुकूल दैव योग से उसके हाथ में काष्ट का तख्ता आ गया। उसके सहारे तिरता हुआ बंधुदत्त समुद्र तट के आभूषण रूप रत्नद्वीप में आ पहुँचा। वहाँ एक वापिका में उतरकर स्नान करके वह एक आम्रफल के वन में गया। वहाँ क्षुधारूप रोग के औषध रूप उसने स्वादिष्ट आम्रफलों का भोजन किया।
_(गा. 56 से 72) इस प्रकार मार्ग में वनफलों का आहार करता हुआ वह बंधुदत्त अनुक्रम से रत्नपर्वत के पास आया और वह पर्वत के ऊपर चढ़ा। वहाँ एक रत्नमय चैत्य उसे दिखाई दिया। तब उसने उस चैत्य में प्रवेश किया। वहाँ स्थित श्री अरिष्टनेमि प्रभु की प्रतिमा को वंदना की। वहाँ कितने ही महामुनि भी थे, उनको भी उसने वंदना की। सर्व में जो ज्येष्ठ मुनि थे उन्होंने
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (नवम पर्व)