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पुण्यवान् है' ऐसा करने पर वह महामति सागरदत्त राजा का अत्यन्त प्रिय हो गया। जहाज का किराना आदि बेचकर उसने बहुत बहुत सा द्रव्य उपार्जन किया। उसके बाद बहुत सा दान आदि देकर वह धर्म करने की इच्छा से धर्मतीर्थकों (धर्माचार्यों) से पूछने लगा कि 'जो देवों के भी देव हों, उनको रत्नमय करने की मेरी इच्छा है। अतः वे मुझे बताओ।' देवतत्त्व तक नहीं पहुँचे हुए उन धर्माचार्यों ने जो उसे कहा, वह उसे योग्य नहीं लगा। तब उनमें से किसी आप्तपुरुष ने कहा कि 'हम जैसे मुग्ध पुरुषों को यह बात क्या पूछते हो? यदि तुमको जानना ही हो तो एक रत्न का अनुसरण करके तपस्या करो, तो उसका जो अधिष्ठायक देव होगा, वह आकर तुमको जो खरे देवाधिदेव होंगें वे बतावेंगे। तब सागरदत्त ने उस प्रकार अट्टम तप किया। तब रत्न के अधिष्ठायक देव ने आकर उसे तीर्थंकर की पवित्र प्रतिमा बताकर कहा कि 'हे भद्र! ये देव ही परमार्थ से सत्य देव हैं। इनका स्वरूप मुनि गण ही जानते हैं। अन्य कोई जानते नहीं है । यह कहकर मूर्ति देकर वह देव अपने स्थान पर चला गया। सागरदत्त उस प्रतिमा को देखकर बहुत खुश हुआ। वह सुवर्णवर्णी अर्हन्त प्रतिमा उसने साधुओं को बताई। तब साधुओं ने उसे जिनेन्द्र प्ररुपित धर्म का उपदेश दिया, तब सागरदत्त श्रावक हो गया।
(गा. 30 से 41 )
एक बार सागरदत्त ने मुनियों से पूछा कि - हे भगवन्! ये कौन से तीर्थंकर की प्रतिमा है ? और मुझे इसकी किस विधि से प्रतिष्ठा करनी, कृपा करके यह मुझे बताईये। मुनियों ने उसे कहा- 'अभी पुंड्रवर्धन देशों में श्री पार्श्वनाथ प्रभु समवसरे हैं । अतः उनके पास जाकर वह सारी बात पूछो। तब सागरदत्त शीघ्र ही श्री पार्श्वनाथ प्रभु जी के पास गया एवं नमस्कार करके उस रत्नप्रतिमा के विषय में सर्व हकीकत पूछी। प्रभु ने अपने समवसरण को उद्देश्य करके सर्व अर्हन्तों के अतिशय संबंधी और तीर्थंकरों की प्रतिमा की स्थापना संबंधी सर्व हकीकत का वर्णन किया। तत्पश्चात् जिनोक्त विधि द्वारा उस तीर्थंकर की प्रतिमा की उसने प्रतिष्ठा कराई। किसी
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (नवम पर्व )
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