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है, उनको दैव भी विघ्न डालने में शंका करते हैं। इस प्रकार विचार करके शुकनग्रंथी बांधकर जहाज लेकर सिंहल द्वीप की ओर चल दिया। परन्तु पवन के योग से वह रत्नद्वीप आया। वहाँ उसने सब माल बेचकर रत्नों का समूह खरीद लिया। उसने उन रत्नों से जहाज भर लिया और अपनी नगरी की ओर चल दिया। उन रत्नों से लुब्ध हुए खलासियों ने उसे रात को समुद्र में डाल दिया। दैवयोग से पहले टूटा हुआ किसी जहाज का पाटियाँ अर्थात् तख्ता उसके हाथ में आने से वह समुद्र को पार कर गया। वहाँ किनारे पर पाटलापाथ नगर था। उस नगर में प्रवेश करते समय उसके श्वसुर ने उसको देखा। अतः वे उसे अपने आवास में ले आए। तत्पश्चात् स्नान, भोजन आदि से निवृत्त हो जाने पर मूल से लेकर खलासी संबंधित सर्व वृतांत अपने श्वसुर से कहा। तब ससुर ने कहा कि 'हे जंवाई राजा! आप यहाँ पर ही रहें। वे दुबुद्धि वाले खलासी तुम्हारे बंधुजनों की शंका से ताम्रलिप्ती नगर में नहीं जायेंगे, लगभग वे यहीं पर आवेंगे। सागरदत्त ने यह स्वीकार किया। उसके श्वसुर ने सर्व हकीकत वहाँ के राजा से निवेदन किया। ‘दीर्घदृष्टा पुरुषों का यही न्याय है।'
_ (गा. 17 से 29) दिनों के पश्चात् वह जहाज वहाँ पर आया। तब सागरदत्त से जिन्होंने सर्व चिह्न जान लिये थे, वे राज्य के आरक्षक पुरुषों ने उसे पहचान लिया। पश्चात् उन्होंने सर्व खलासियों को पृथक्-पृथक् बुलाकर पूछा कि 'इस जहाज का मालिक कौन है ? इसमें क्या क्या किराना है। वह कितना-कितना है। इस प्रकार उलट पुलट कर पूछताछ करने पर वे सब क्षुब्ध होकर अलग अलग बात करने लगे। इससे उन्होंने उनको दगा देने वाले जानकर उन आरक्षकों ने तत्काल ही सागरदत्त को वहाँ बुलाया। सागरदत्त को देखते ही वे भयभीत होकर बोले कि 'हे प्रभु! हम कर्मचांडालों ने तो महादुष्कर्म किया था, तथापि तुम्हारे प्रबल पुण्य से ही तुम अक्षत रहे हो। हम आपके वंध्य कोटि को प्राप्त हुए हैं, इसलिए आप स्वामी को जो योग्य लगे वह करें। कृपालु और शुद्ध बुद्धि वाले सागरदत्त ने राजपुरुषों से उनको छुड़ाया और कुछ पाथेय देकर उनको विदा किया। उसके इस कृपालु भाव से 'यह
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (नवम पर्व)
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