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सर्ग - 4 श्री पार्श्वनाथ प्रभु का विहार और निर्वाण
सर्व विश्व के अनुग्रह के लिए विहार करते हुए पार्थप्रभु एक वक्त संसार में पुंड्र (तिलक) जैसे पुंड्र नाम के देश में आए। उस अरसे में पूर्व देश में ताम्रलिप्ति नगरी में सागरदत्त नाम का एक कलाज्ञ और सद्बुद्धिमान युवा वणिक पुत्र रहता था। उसे जातिस्मरण ज्ञान होने से वह सर्वदा स्त्री जाति से विरक्त था। वह स्वरूपवती स्त्री से भी विवाह करना चाहता नहीं था। वह पूर्वजन्म में एक ब्राह्मण पुत्र था। उस भव में किसी अन्य पुरुष से आसक्त हुई उसकी पत्नि ने उसे जहर देकर, संज्ञा रहित करके किसी स्थान पर छोड़ दिया। वहाँ एक गोकुली स्त्री ने उसे जीवन दान दिया। पश्चात् वह परिव्राजक हो गया। वहाँ से मरकर वह इस भव में वह सागरदत्त नाम का श्रेष्ठीपुत्र हुआ था। परन्तु पूर्वजन्म की स्मृति से वह स्त्रियों से विमुख था।
(गा. 1 से 5) वह लोकधर्म में तत्पर गोकुली स्त्री भी मरकर अनुक्रम से उसी नगरी में एक वणिक् पुत्री हुई। ‘इस स्त्री में इसकी दृष्टि रमण करेगी' ऐसी संभावना करके बंधुजनों ने उसे सागरदत्त के लिए पसंद किया और गौरव सहित उसे प्राप्त भी किया। परन्तु सागरदत्त का मन उस पर विश्रांत नहीं हुआ। कारण कि पूर्व के अभ्यास से वह स्त्रियों को यमदूती जैसी मानता था। बुद्धिमान् वणिक्पुत्री ने विचार किया कि 'इससे पूर्व भव का कुछ स्मरण हुआ लगता है, और उस जन्म में किसी पुश्चली स्त्री ने इस पुरुष को हैरान
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (नवम पर्व)
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