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हैं। मन, वचन और काया से दुष्ट प्रणिधान, अनादर और स्मृति का अनुपस्थापन- ये सामायिक नामक नवम व्रत के पाँच अतिचार हैं। प्रेष्य प्रयोग, आनयन प्रयोग, पुद्गल का प्रक्षेप, शब्दानुपात और रुपानुपात- ये पाँच देशावगासिक व्रत के अतिचार हैं। संथारादि अच्छी तरह देखें बिना या प्रमार्जन बिना लेना या रखना, अनादर और स्मृति का न रहना ये पाँच पौषध व्रत के अतिचार हैं। सचित्त के ऊपर रखना, सचित्त वस्तु से ढंकना, काल की स्थापना का उल्लंघन करके आमंत्रण देना, मत्सर रखना और व्यपदेश करना ये पाँच अतिथि संविभाग व्रत के अतिचार हैं। इस प्रकार अतिचारों से रहित व्रत का पालन करने वाला श्रावक भी शुद्धात्मा होकर अनुक्रम से भवबंधन से मुक्त हो सकता है।
(गा. 349 से 354) इस प्रकार प्रभु की देशना श्रवण करके अनेकों ने दीक्षा ली और अनेक श्रावक हुए। अर्हन्त की वाणी कभी भी निष्फल नहीं जाती। मनस्वी अश्वसेन राजा ने भी प्रतिबद्ध होकर तत्काल ही अपने लघु पुत्र हस्तिसेन को राज्य सौंपकर, दीक्षा अंगीकार की। वामादेवी और प्रभावती ने भी प्रभु की देशना से विरक्त होकर मोक्षसाधन कराने वाली दीक्षा ली। प्रभु के आर्यदत्त आदि दस गणधर हुए। प्रभु ने उनको स्थिति, उत्पाद और व्ययरूप त्रिपदी का श्रवण कराया। उस त्रिपदी के श्रवण मात्र से उन्होंने सद्य द्वादशांगी की रचना की। बुद्धिमान को दिया उपदेश जल में तेल के बिन्दु के समान प्रसर जाता है। प्रथम पौरुषी पूर्ण होने पर प्रभु की देशना समाप्त हुई। दूसरी पौरुषी में आर्यदत्त गणधर ने देशना दी। तत्पश्चात् शक्रेन्द्र आदि देवगण और मनुष्य प्रभु को नमन करके देशना को स्मरण करते करते अपने अपने स्थान पर चले गये।
(गा. 355 से 361) पार्श्वनाथ प्रभु के तीर्थ में कछुए के वाहन वाले, कृष्ण वर्ण वाले, हस्ति जैसे मुखवाले, नागफणों के छत्र से शोभते, चार भुजा वाले, दो वाम भुजा में नकुल और सर्प तथा दो दक्षिण दिशा में बीजोरा और सर्प धारण
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (नवम पर्व)
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