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चौथा व्रत ब्रह्मचर्य- इसके अपरिगृहीता गमन, इत्वरपरिगृहीता गमन, परविवाहकरण, तीव्र कामभोगानुराग, और अनंगक्रीड़ा- ये पाँच अतिचार हैं। पाँचवाँ व्रत अपरिग्रह (परिग्रह का प्रमाण) उसमें धन, धान्य का प्रमाणातिक्रम, तांबा, पीतल आदि धातु का प्रमाणातिक्रम, द्विपद-चतुष्पद का प्रमाणातिक्रम, क्षेत्र वस्तु का प्रमाणातिक्रम, और रुप्य (चाँदी) सुवर्ण (सोना) का प्रमाणातिक्रम ये पाँच अतिचार हैं। ये अतिचार अनाज के छोटेबड़े माप करने से, ताम्रादिक के भाजन छोटे बड़े करने से, द्विपद-चतुष्पद के गर्भधारण से वृद्धि होने से, घर या क्षेत्र के बीच की भींत या बाड़ निकालकर एकत्रित कर देने से और रुप्य-सुवर्ण किसी को देने से लगता है। परन्तु वह व्रत ग्रहण करने वाले को लगाने योग्य नहीं है। स्मृति न रहना, ऊपर नीचे तिरछे भाग में जाने के प्रमाण का उल्लंघन करना और क्षेत्र में वृद्धि हानि करना ये पाँच छठे दिग्विरतिव्रत के अतिचार हैं। सचित्त भक्षण, सचित्त के सम्बन्ध वाले पदार्थ का भक्षण, तुच्छ औषधि का भक्षण, तथा अपक्व और दुष्पक्व वस्तु का आहार- ये पाँच अतिचार भोगोपभोग प्रमाण नामक सातवें व्रत के हैं। ये अतिचार भोजन आश्रित त्याग करने के हैं। दूसरे पन्द्रह कर्म से त्यागने रूप हैं
(गा. 325 से 332) उसमें खर कर्म का त्याग करना। ये खर कर्म पन्द्रह प्रकार के कर्मादान रूप हैं। वे इस प्रकार के हैं- अंगारजीविका, वनजीविका, शकटजीविका, भाटकजीविका, स्फोटजीविका, दंतवाणिज्य, लाक्षवाणिज्य, रसवाणिज्य, केशवाणिज्य, विषवाणिज्य, यंत्रपीड़ा, निर्लाछन, असतीपोषण, दवदान और सरः शोष- ये पन्द्रह प्रकार के कर्मादान कहे जाते हैं। अंगारे की भट्ठी करनी, कुंभार, लुहार तथा स्वर्णकारपन करना और चूना, ईंट पकाना, ये काम करके जो आजीविका करते हैं, ये अंगाराजीविका कहलाती है। छेदित
और बिना छेदित वन के पत्र-पुष्प और फूल को लाकर बेचना, और अनाज दलना, कूटना, पीसना, खांडना आदि के द्वारा अजीविका चलाना वह वनजीविका कहलाती है। शकट अर्थात् गाड़ी, और उसके पहिये, धुरी आदि
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (नवम पर्व)
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