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ज्ञात होने पर वहाँ आकर समवसरण की रचना की। प्रभु ने पूर्व द्वार से समवसरण में प्रवेश किया। समवसरण के मध्यभाग में आए सत्तावीस धनुष उत्तुंग चैत्यवृक्ष को मेरु को सूर्य की भाँति प्रभु ने प्रदक्षिणा दी। पश्चात् तीर्थाय नमः ऐसा कहकर श्री पार्श्वप्रभु पूर्वाभिमुख से उत्तम रत्नसिंहासन पर बिराजमान हुए। व्यंतर देवों ने अन्य तीन दिशाओं में प्रभु के प्रभाव से प्रभु के समान ही अन्य तीन प्रतिबिम्बों की विकुर्वणा की। चारों निकायों के देव, देवियाँ, नर, नारियाँ, साधु और साध्वियाँ इस प्रकार बारह पर्षदा प्रभु को नमस्कार करके यथा स्थान पर बैठी।
(गा. 297 से 304) उस वक्त प्रभु का ऐसा वैभव देखकर वनपाल ने आकर अश्वसेन राजा को इस प्रकार कहा, हे स्वामिन! बधाई हो। श्री पार्श्वनाथ प्रभु को अभी अभी जगत् के अज्ञान को नाश करने वाला केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है। महातिशय सम्पन्न ऐसे वे जगत्पति शक्रादि इन्द्रों के परिवार से परिवृत होकर दिव्य समवसरण में विराजित हैं। यह सुनकर राजा ने उसको योग्य पारितोषिक दिया, और प्रभु के दर्शन की इच्छा से त्वरित ही ये समाचार तुरन्त वामादेवी को दिये। तब अश्वसेन राजा, वामा देवी तथा अन्य परिवार को लेकर भवोदधितारक उस समवसरण में आए। हर्षपूरित मन से राजा प्रभु को प्रदक्षिणा देकर प्रणाम करके शकेन्द्र के पृष्ठभाग में बैठे। तब शकेन्द्र
और अश्वसेन राजा खड़े होकर पुनः प्रभु को नमन करके मस्तक पर अंजली करके इस प्रकार स्तुति करने लगे।
(गा. 305 से 311) 'हे प्रभु! सर्वत्र भूत, भविष्य और वर्तमान काल के भाव को प्रकाशित करने वाले आपका यह केवलज्ञान जयवंता वर्तो। इस अपार संसार रूप समुद्र में प्राणियों के लिए वाहनरूप आप हैं और निर्यामक भी आप हैं। हे जगत्पति! 'आज का यह दिन हमारे लिए सर्व दिवसों में राजा जैसा है, हमको आपके चरण दर्शन का महोत्सव प्राप्त हुआ है। यह अज्ञानरूपी अंधकार कि जो मनुष्यों की विवेकदृष्टि को लूटने वाला है, वह आपके दर्शन
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (नवम पर्व)
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