________________
शत्रु होकर तूने जो यह कार्य किया है, यह अब दूर कर दे, अन्यथा अब तू रह भी नहीं सकेगा। धरणेन्द्र के इन वचनों से मेघमाली ने नीची दृष्टि करके नागेन्द्र से सेवित पार्थप्रभु को देखा। इससे उसने चिन्तन किया कि 'चक्रवर्ती पर उपद्रव करने वाले मलेच्छों से आराधित मेघकुमारों की शक्ति जैसे वृथा हो जाती है, वैसे ही इन पार्श्वनाथ पर मैंने जो शक्ति प्रयुक्त की, वह सब वृथा ही गई है। ये प्रभु एक मुष्ठि से पर्वत को भी चूर्ण करने में समर्थ हैं, तथापि ये करुणानिधि होने से मुझे भस्म नहीं करते। परन्तु इस धरणेन्द्र से मुझे भय है। इन त्रैलोक्यपति का अपकार करके त्रैलोक्य में भी मेरी स्थिति नहीं हो सकेगी, तो फिर मैं किसकी शरण में जाऊँगा? यदि इन प्रभु का शरण मिले तो ही मैं उठ सकूँगा एवं मेरा हित होगा। इस प्रकार विचार करके तत्काल ही मेघमंडल का संहरण करके भयभीत होता हुआ मेघमाली प्रभु के पास आया, और नमस्कार करके बोला कि हे प्रभु! यद्यपि आप तो अपकारी जन पर भी क्रोध करते नहीं हो, तथापि मैं अपने स्वयं के दुष्कर्म से ही दूषित होने से भयभीत हूँ। ऐसा दुष्कर्म करने पर भी मैं निर्लज्ज होकर आपके पास याचना करने आया हूँ। अतः 'हे जगन्नाथ! दुर्गति में गिरते शंकाशील इस दीन जन की रक्षा करो, रक्षा करो।' इस प्रकार कहकर प्रभु से क्षमा मांग कर नमस्कार करके मेघमाली देव पश्चाताप करते-करते अपने स्थान पर गया। पश्चात् प्रभु को उपसर्ग रहित जानकर स्तुति और प्रणाम करके नागराज धरणेन्द्र भी अपने स्थानक गये। इधर रात्रि भी व्यतीत हो गई और प्रभात काल हो गया।
(गा. 272 से 296) भगवंत वहाँ से विहार करके अनुक्रम से वाराणसी पुरी के समीप आकर आश्रमपद नाम के उद्यान में घातकी वृक्ष के नीचे कायोत्सर्ग ध्यान में रहे। वहाँ दीक्षा के दिन से चौरासी दिन व्यतीत होने पर शुभ ध्यान से प्रभु के घातीकर्म क्षय हो गये और चैत्रमास की कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को, चन्द्र के विशाखा नक्षत्र में आने पर, पूर्वाह्नकाल में प्रभु को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। उस समय शक्र प्रमुख देवताओं के आसनकम्प होने से सर्व हकीकत
[88]
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (नवम पर्व)