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तब पद्मद्रह में लक्ष्मी के स्थान रूप महापद्म की भाँति प्रभु उस जल में शोभित होने लगे । रत्नशिला के स्तम्भ के समान उस जल में भी निश्चल रहे प्रभु नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि स्थिर करके रहे । जरा भी चलित नहीं हुए । अंत में वह जल पार्श्वप्रभु के नासिका के अग्रभाग तक आ गया।
(गा. 247 से 271)
उस समय अवधिज्ञान से धरणेन्द्र को ज्ञात हुआ कि 'अरे! वह बाल तापस कमठ मेरे प्रभु को बैरी मानकर उपद्रव कर रहा है।' अतः वे तत्काल अपने महिषियों के साथ नागराज धरणेन्द्र वेग से मन के साथ स्पर्धा करते हों, वैसे शीघ्र ही प्रभु के पास आए । प्रभु को नमन करके धरणेन्द्र ने उनके चरण के नीचे केवली के आसन समान और नीचे रहा हुआ लम्बी नाल वाला सुवर्ण कमल की विकुर्वणा की । पश्चात् उन भोगीराज ने अपनी काया से प्रभु के पृष्ठ और दोनों पार्श्व को आवृत करके सात फणों द्वारा प्रभु के मस्तक पर छत्र कर दिया । जल की ऊँचाई जैसे लम्बे नाल वाले कमल के ऊपर समाधि में लीन होकर सुख में स्थित प्रभु राजहंस सम शोभित होने लगे। भक्ति भाव युक्त चित्तवाली धरणेन्द्र की स्त्रियाँ प्रभु के आगे गीत नृत्य करने लगी। वेणु वीणा के तार ध्वनि और मृदंग का उद्धृत नाद, विविध ताल का अनुसरण करता हुआ वृद्धिगत होने लगा । विचित्र चारु चारित्र वाला, हस्तादिक के अभिनय से उज्जवल और विचित्र अंगहार से रमणिक नृत्य होने लगा। उस समय ध्यान में लीन हुए प्रभु नागाधिराज धरणेन्द्र पर और असुर मेघमाली पर समान भाव रखते थे। इस उपरान्त भी कोप वृष्टि करते मेघमाली को देखकर धरणेन्द्र उस पर क्रोध करके आक्षेप से बोले, 'अरे! दुर्मति! अपने अनर्थ के लिए यह तूने क्या आरंभ किया है ?' मैं इस महाकृपालु प्रभु का शिष्य हूँ। तथापि अब मैं यह सहन करूँगा नहीं । उस वक्त इन प्रभु ने काष्ट में जलते सर्प को बताकर उल्टा तुझे पाप करते अटकाया। इसमें तेरा क्या अपराध किया ? अरे! मूढ़ खारी जमीन में गिरा मेघ का जल भी लवण के लिए हो जाता है, वैसे ही प्रभु का सदुपदेश भी तेरे लिए बैर का कारण हो गया । निष्कारण बन्धु ऐसे प्रभु पर निष्कारण
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (नवम पर्व)
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