________________
पार्श्वनाथ प्रभु ने अष्टम तप करके तीन सौ राजाओं के साथ दीक्षा ली। तत्काल प्रभु को मनःपर्यव ज्ञान उत्पन्न हुआ। यह ज्ञान सर्व तीर्थंकरों को दीक्षा महोत्सव के समय उत्पन्न होता है।
(गा. 231 से 241) दूसरे दिन कोष्टक नामक गांव में धन्य नाम के गृहस्थ के घर प्रभु ने पायसान्न से पारणा किया। देवताओं ने वहाँ वसुधारादि पंच दिव्य प्रगट किये,
और धन्य ने प्रभु के पगलों की भूमि पर एक पादपीठ बनाया। उसके पश्चात् वायु के समान प्रतिबंध हित ऐसे प्रभु ने युगमात्र दृष्टिपात् करते हुए अनेक गांव आकर और नगर आदि में छद्मस्थ रूप में विहार करने लगे। एक वक्त विहार करते हुए प्रभु किसी नगर के पास तापस के आश्रम के समीप आए। तब तक वहाँ तो सूर्य अस्त हो गया। तब रात्रि हो जाने से एक कुए के पास बड़वृक्ष के नीचे जगद्गुरु शाखा की भाँति निष्कंप होकर कायोत्सर्ग मुद्रा में स्थित हो गए।
(गा. 242 से 246) इधर उस मेघमाली नाम के मेघकुमार देव ने अवधिज्ञान द्वारा पूर्वभव का व्यतिकर जाना। तब पार्श्वनाथ के जीव के साथ प्रत्येक भव में अपना बैर भाव याद करके वड़वानल से सागर की भाँति वह अंतर में अत्यन्त क्रोध द्वारा प्रज्वलित हुआ। जैसे पर्वत को भेदने के लिए हाथी आता है, वैसे ही वह अधम देव अमर्ष रखकर पार्श्वनाथ को उपद्रव करने के लिए वहाँ आया। सर्वप्रथम तो उसने दाढ़रूपी करवत से भयंकर मुख वाले, वज्र जैसे नखांकुर को धारण करने वाले और पिंगल नेत्रवाले केशरीसिंहों की विकुर्वणा की। वे पूँछ द्वारा भूमी-पीठ पर बारंबार प्रहार करने लगे और मृत्यु के मंत्राक्षर जैसे धुत्कार शब्द करने लगे। तथापि ध्यान में निश्चल लोचन करके रहे प्रभु किंचित् मात्र भी क्षुब्ध नहीं हुए। अर्थात् ध्याग्नि से भयभीत हुए वे कहीं चले गए। उसके बाद उसने गर्जना करते और मद का वर्षण करते जंगम पर्वत तुल्य विशाल हाथियों की विकुर्वणा की। भयंकर से भी भयंकर ऐसे उन गजेन्द्रों से भी प्रभु जरा भी क्षोभ को प्राप्त नहीं हुए। इससे
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (नवम पर्व)
[85]