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पच्चक्खाण कराये। उस समाधि वाले नाग ने भी भगवान की कृपा दृष्टि से सिंचित होकर शुद्ध बुद्धि से नवकार सुना और पच्चक्खाण ग्रहण किये। तत्काल ही आयुष्य पूर्ण होने से नवकार मंत्र के प्रभाव से और प्रभु के दर्शन से मरण के पश्चात् 'धरण' नाम का नागराज हुआ। तब अहो! इन पार्श्वकुमार का ज्ञान और विवेक असाधारण हैं, ऐसे लोगों से स्तुत्य पार्थप्रभु स्वस्थानक गये। इस घटना को देखकर और सुनकर कमठ तापस विशेष कष्टकारी तप करने लगा। परन्तु मिथ्यात्वी को अत्यन्त कष्ट भोगने पर भी ज्ञान कहाँ से हो? अनुक्रम से वह कमठ तापस मृत्यु प्राप्त करके भुवनवासी देवों की मेघकुमार निकाय में मेघमाली नामक देव हुआ।
___ (गा. 212 से 230) श्री पार्श्वनाथ प्रभु ने अपने भोगावली कर्म को भोग्य हुआ जानकर दीक्षा लेने में मन जोड़ा। उस समय प्रभु के भावों को जानते हो वैसे लोकान्तिक देवों ने आकर पार्श्वनाथ प्रभु को विज्ञप्ति की कि हे नाथ! 'तीर्थ का प्रवर्तन कीजिए।' यह सुनकर 'प्रभु ने कुबेर की आज्ञा से मुंभक देवों से पूरित द्रव्य द्वारा वार्षिक दान देना प्रारंभ किया।' पश्चात् ‘शक्रादि इन्द्रों ने और अश्वसेन प्रमुख राजाओं ने श्री पार्श्वनाथ प्रभु का दीक्षा अभिषेक किया। तब देव और मानवों ने वहन करने योग्य ऐसी विशाला नाम की शिबिका में विराजमान होकर आश्रमपद उद्यान के समीप पधारे। मरुबक (मरवा) के सघन पौधों से जिसकी भूमि श्याम हो गई थी, जो डोलर की कलियों से मानो कामदेव की प्रशस्ति (प्रशंसा पत्र को धारण करते हो) ऐसा दृष्टिगत हो रहा था। जिनके मुचकुन्द और निकुरंब के वृक्षों को भ्रमरगण चुम्बन करते थे। आकाश में उड़ते चिरौजी वृक्ष के पराग से जो सुंगधमय हो रहा था। जिसमें इक्षुदंड के क्षेत्रों में बैठकर उद्यानपालिकाएँ उच्च स्वर में गाती थी, ऐसे उद्यान में अश्वसेन कुमार श्री पार्श्वनाथ ने प्रवेश किया। तत्पश्चात् तीस वर्ष की वय वाले प्रभु ने शिबिका से उतरकर आभूषणादि सर्व का त्यागकर दिया और इन्द्र प्रदत्त एक देवदूष्य वस्त्र धारण किया। पौषमास की कृष्ण एकादशी को चन्द्र के अनुराधा नक्षत्र में आने पर श्री
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (नवम पर्व)