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के आग्रह से उद्यान तथा क्रीड़ागिरि आदि में प्रभावती के साथ क्रीड़ा करते हुए प्रभु दिन निर्गमन करने लगे ।
(गा. 195 से 211)
एक दिन पार्श्वप्रभु महल के ऊपर गवाक्ष में बैठे कौतुक से समग्र वाराणसी पुरी का अवलोकन कर रहे थे। इतने में पुष्पों के उपहार आदि के करंडक ( छाबड़ी) लेकर शीघ्रता से नगर के बाहर जाते हुए अनेक स्त्रीपुरुषों को देखा । तब समीपस्थ लोगों का पूछा कि आज कौन सा महोत्सव है, कि जिससे ये लोग अलंकारादि धारण करके जल्दी जल्दी नगर से बाहर जा रहे हैं ? इसके उत्तर में किसी पुरुष ने कहा, 'हे देव ! आज कोई महोत्सव नहीं है । परन्तु इसका कारण तो दूसरा है। इस नगरी के बाहर कमठ नामका कोई तपस्वी आया है, वह पंचाग्नि तप कर रहा है, उसकी पूजा करने के लिए नगरजन वहाँ जा रहे हैं।' यह सुनकर पार्श्वनाथ प्रभु उस कौतुक को देखने के लिए परिवार सहित वहाँ गये । अर्थात् कमठ को पंचाग्नि (अर्थात् चार दिशा में अग्निकुण्ड और मस्तक पर सूर्य पंचाग्नि) तप करते हुए वहाँ देखा। त्रिविध ज्ञानधारी प्रभु ने उपयोग से अग्निकुण्ड में काष्ठ के अंतरभाग में स्थित एक विशाल सर्प को जलते हुए देखा। तब करुणानिधि भगवान् बोले कि 'अहो ! यह कैसा अज्ञान ! जिस तप में दया नहीं, वह तप ही नहीं है।' जैसे जल बिना नदी, चन्द्र रहित रात्रि और मेघ के बिना वर्षा वैसे दया रहित धर्म भी कैसा ? पशु की भाँति कभी काया के क्लेश को चाहे जितना सहन करो, परन्तु धर्म तत्त्व को स्पर्श किये बिना निर्दय ऐसे प्राणी को धर्म किस प्रकार हो ? यह सुनकर कमठ बोला कि राजपुत्र तो हाथी, घोड़े आदि से खेलना जानते हैं, धर्म तो हमारे जैसे मुनि ही जानते हैं। तब प्रभु ने तत्काल ही अपने सेवक को आज्ञा दी कि 'इस कुण्ड में से इस काष्ठ को खींचकर निकालो और उसे यतना से फाड़ो कि जिससे इस तापस को प्रतीति हो ।' उन्होंने 'कुण्ड में से उस काष्ठ को बाहर निकाल कर जयणा पूर्वक फाड़ा। तब उसमें से एकदम एक विशाल सर्प निकला। अर्द्धदग्ध उस सर्प को प्रभु ने अन्य पुरुष से नवकार मंत्र सुनाया एवं
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (नवम पर्व )
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