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शरणागत के रक्षण से अश्वसेन राजा को रंजित करते हुए पार्श्वनाथ ने स्वयं के दर्शन से सर्व को आनन्दित किया। तब अश्वसेन राजा ने खड़े होकर चरणों में आलोटते हुए प्रसेनजित् राजा को खड़ा करके, दोनों भुजाओं से आलिंगन करके संभ्रम से पूछा कि 'हे राजन्! आपकी रक्षा अच्छी तरह हो गई ? आप कुशल हैं ? आप स्वयं यहाँ पधारे, इससे मुझे कुछ शंका हो रही है।' प्रसेनजित् बोले- 'प्रताप द्वारा आप सूर्य के सदृश जिनके रक्षक है, ऐसे मुझे तो सदैव रक्षण और कुशलता ही है। परन्तु हे राजन् ? एक दुष्प्राप्य वस्तु की प्रार्थना मुझे सदा पीड़ित करती है। वह मेरी प्रार्थना आपके प्रासाद से ही सिद्ध होगी। हे महाराजा! मेरे प्रभावती नाम की एक कन्या है। उसे मेरे आग्रह से पार्श्वनाथ कुमार के लिए ग्रहण करो। यह मेरी प्रार्थना अन्यथा मत कीजिएगा। अश्वसेन ने कहा, यह मेरा पार्श्वकुमार सदा संसार से विरक्त है। इससे वह क्या करेगा, यह अब तक मेरी समझ में नहीं आता है। हमारे तो मन में भी सदा ऐसा ही मनोरथ रहता है कि 'इस कुमार के योग्य वधु के साथ विवाहोत्सव कब होगा?' जबकि यह बाल्यवय से ही स्त्रीसंग को इच्छते नहीं है। तो भी अब आपके आग्रह से उसका प्रभावती के साथ ही जबरदस्ती विवाह करेंगे। इस प्रकार कहकर अश्वसेन राजा प्रसेनजित् को साथ में लेकर पार्श्वकुमार के पास आए और कहा कि, हे कुमार! इन प्रसेनजित् राजा की पुत्री के साथ विवाह करो। पार्श्वकुमार बोले'हे पिताजी! स्त्री आदि का परिग्रह क्षीणप्राय हुआ संसाररूपी वृक्ष का जीवनौषध है, तो ऐसे त्याज्य संसार का आरंभ करने वाली रस कन्या के साथ मैं क्यों विवाह करूँ?' मूल से ही परिग्रह रहित होकर मैं संसार से तिर जाऊँगा? अश्वसेन बोले- 'हे कुमार! ‘इन प्रसेनजित् राजा की कन्या का पाणिग्रहण करके एक बार हमारा मनोरथ पूर्ण करो।' हे पुत्र! जिनके ऐसे सद्विचार हैं, वो संसार से तिरा हुआ ही है। अतः विवाह करके पश्चात् जब योग्य समय आवे तब उसके अनुसार अपने स्वार्थ को सिद्ध करना। इस प्रकार पिता के वचन का उल्लंघन करने में असमर्थ होकर पार्श्वकुमार ने योग्यकर्म क्षय करने के लिए प्रभावती का पाणिग्रहण किया। तब लोगों
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (नवम पर्व)