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'अभयदाता' हो। तथापि अज्ञानता के कारण मैं अर्ज करता हूँ कि 'आप मुझ पर प्रसन्न होवें। मेरी राज्यलक्ष्मी को ग्रहण करो। मैं तो आपका सेवक हूँ अतः भय से आक्रान्त मुझे अभय देवें। यवन के ऐसे वचन श्रवण करके पार्श्वनाथ ने कहा- 'हे भद्र! तुम्हारा कल्याण हो, भयभीत मत होओ और सुखपूर्वक अपने राज्य का पालन करो। पुनः कभी ऐसा मत करना।' प्रभु के ऐसे वचनों को सुनकर 'तथास्तु' ऐसा कहते हुए प्रभु ने यवनराज का सत्कार किया। ‘महज्जनों के प्रसाद दान से सर्व की स्थिति उत्तम होती है।'
(गा. 156 से 170) तत्पश्चात् प्रसेनजित् राजा का राज्य और कुशस्थल नगर शत्रु के घेरे से रहित हुआ। तब पुरुषोत्तम पार्श्वनाथ की आज्ञा लेकर नगर में गया। उसने प्रसेनजित् राजा के पास जाकर सर्व वृत्तान्त कह सुनाया। सुनकर सर्व नगर में हर्ष का छत्र रूप महोत्सव प्रवृत्त हुआ। प्रसेनजित् राजा प्रसन्न होकर विचार करने लगे कि 'मैं सर्वथा भाग्यवान हूँ, और मेरी पुत्री प्रभावती भी सर्वथा भाग्यवती है। मेरे मन में ऐसा मनोरथ भी नहीं था कि जो सुरासुरपूजित पार्श्वनाथ कुमार मेरे नगर को पवित्र करेंगे।' अब उपहार स्वरूप प्रभावती को लेकर मैं उपकारी पार्श्वनाथ कुमार के पास जाऊँ। इस प्रकार विचार करके प्रसेनजित् राजा प्रभावती को साथ लेकर हर्षित होकर परिवार सहित पार्श्वनाथ के पास आए और प्रभु को नमस्कार करके अंजलीबद्ध होकर बोले- 'हे स्वामिन्! आपका आगमन बादल बिना वृष्टि के तुल्य भाग्ययोग से आकस्मिक हुआ है। वह यवनराज मेरा शत्रु होने पर भी मेरा उपकारी सिद्ध हुआ है, कि जिनके विग्रह से त्रिजगत्पति ऐसे आपने आकर मुझ पर अनुग्रह किया। हे नाथ! जिस प्रकार दया लाकर यहाँ आकर मुझ पर अनुग्रह किया, उसी प्रकार मेरी पुत्री प्रभावती के साथ विवाह करके पुनः अनुग्रह करो। यह प्रभावती दुष्प्राप्य वस्तु की (आपकी) प्रार्थना करने वाली है, और वह दूर होने पर भी आप पर अनुरागी है, अतः आप इस पर कृपा करो। वैसे आप स्वभाव से ही कृपालु हैं।
(गा. 171 से 180)
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (नवम पर्व)