Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charit Part 07
Author(s): Surekhashreeji Sadhvi
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 92
________________ उस समय प्रभावती ने चिन्तन किया कि 'मैंने पूर्व में किन्नरियों से जिनके विषय में सुना था, वे पार्श्वनाथ कुमार आज मुझे दृष्टिगोचर हुए हैं।' 'अहो! दृष्टि से देखने पर जैसा श्रवण किया था, वैसा ही मिलता है। दाक्षिण्य युक्त एवं कृपावन्त, जैसा सुना था, वैसा ही है।' इन कुमार को पिताश्री ने मेरे लिए रोका, यह अच्छा किया। तथापि भाग्य की प्रतीति न होने से ये पिताश्री के वचन मान्य करेंगे या नहीं, ऐसी शंका से आकुलित हो शंकित हो रही हूँ। प्रभावती ऐसे चिन्तातुर थी, और राजा प्रसेनजित सन्मुख खड़े थे। उस वक्त पार्थकुमार मेघ के सम निर्घोष धीर वाणी से बोले- 'हे राजन्! मैं पिताश्री की आज्ञा से मात्र आपके रक्षार्थ यहाँ आया हूँ, आपकी कन्या को परणने नहीं। इसलिए हे कुशस्थलपति! इस विषय में आप वृथा ही आग्रह करना नहीं। पिता के वचनों का अमल करके, अब मैं पुनः पिता के पास जाऊँगा। पार्थकुमार का कथन श्रवण करके खेदित होकर वह विचारने लगी कि दयालु पुरुष के मुखारविन्द से ऐसे शब्द निकले। ‘वह चन्द्रमा से मानो अग्नि का झरण हुआ वैसा है। ये कुमार सब के ऊपर कृपालु है, और मुझ पर कृपारहित हो गए।' इससे हा! हा! अब क्या होगा? 'इससे तो यह विदित होता है कि प्रभावती मंदभाग्या है।' सदैव पूजित हे कुलदेवियों! तुम शीघ्र ही आकर मेरे स्वामी को कुछ उपाय बताओ, क्योंकि अभी ये उपाय रहित हो गए हैं। राजा प्रसेनजित ने विचार किया कि ये पार्श्वनाथ स्वयं तो सर्वत्र निस्पृह है, परन्तु वे अश्वसेन राजा के आग्रह से मेरा मनोरथ पूर्ण करेंगे। इसलिए अश्वसेन राजा को मिलने के बहाने मैं इनके साथ ही जाऊँ और वहाँ इच्छित की सिद्धि के लिए मैं स्वयं अश्वसेन राजा को आग्रह करूँ। ऐसा विचार करके उन्होंने पार्थकुमार के वचन से यवनराजा से मैत्री करके उनको विदा किया। पश्चात् पार्श्वनाथ प्रभु को विदा करते समय प्रसेनजित बोले कि, 'हे प्रभु! अश्वसेन राजा के चरणों में नमन करने के लिए मैं आपके साथ आऊँ?' पार्श्वनाथ ने खुश होकर स्वीकृति प्रदान की। तब प्रसेनजित् राजा प्रभावती को साथ लेकर उनके साथ वाराणसी आये। (गा. 181 से 194) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (नवम पर्व) [81]

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