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स्वामी को अनर्थ उत्पन्न करते हो। अरे मूढ़ों! जगत्पति श्री पार्श्वनाथ की मात्र आज्ञा का उल्लंघन करना, वह भी अपनी कुशलता के लिए नहीं है, तो फिर इस दूत का घात करने की तो बात ही क्या करना? तुम्हारे जैसे सेवक दुर्दीत घोड़े के जैसे अपने स्वामी को खींचकर तत्काल अनर्थरूप अरण्य में फैंक देते हैं। तुमने पहले भी अन्य राजाओं के दूतों को घार्षित (ताडित) किया है, उसमें जो तुम्हारी कुशलता रही है, उसका कारण यह था कि अपने स्वामी उनसे अधिक समर्थ थे। परंतु इन पार्श्वनाथ प्रभु के तो चौसठ इंद्र भी सेवक हैं। तो ऐसे समर्थ के साथ अपने स्वामी को तुम्हारे जैसे दुर्विनीत कीटों द्वारा युद्ध करना, वह कितना अधिक हानिकारक है।
(गा. 138 से 145) मंत्री के ऐसे वचन सुनकर सर्व सुभट भयभीत होकर शांत हो गये। पश्चात् उस दूत का हाथ पकड़ कर मंत्री ने सामवचन से कहा- हे विद्वान दूत! मात्र शस्त्रोपजीवी ऐसे इन सुभटों ने जो कुछ कहा, वह तुम सहन कर लेना, क्योंकि तुम एक क्षमानिधि राजा के सेवक हो। हम श्री पार्श्वप्रभु के शासन को शिरोधार्य करने के लिए तुम्हारा अनुगमन करते हुए पीछे पीछे आवेंगे। अतः इनके वचन तुम स्वामी को कहना नहीं। इस प्रकार उसे समझाकर और सत्कार करके मंत्री ने दूत को विदा किया। तत्पश्चात् उस हितकामी मंत्री ने अपने स्वामी को कहा- “हे स्वामिन्! आपने विचार किये बिना जिसका दुष्कर परिणाम आवे ऐसा कार्य कैसे किया ?” परन्तु अभी भी कुछ बिगड़ा नही है, शीघ्र ही जाकर उन पार्श्वनाथ प्रभु का आश्रय लो। जिनका सूतिका कर्म देवियों ने किया, जिनका धात्रिकर्म भी देवियों ने किया है, जिनका जन्मस्नान अनेकानेक देवों सहित इंद्रों ने किया है, इतना ही नहीं देव सहित इंद्रगण जिनके सेवक होकर रहते हैं, उन प्रभु के साथ ही विग्रह करना हो तो हाथी के साथ मेंढा के विग्रह करने जैसा है।'' पक्षीराज गरुड कहाँ और कंकोल पक्षी कहाँ ?" ऐसे ही वे पार्श्वनाथ कहाँ और आप कहाँ ? अतः जब लोगों के जानने में न आवे, तब तक आत्महित करने की इच्छा से कंठपर कुल्हाड़ा लेकर आप अश्वसेन कुमार पार्श्वनाथ की शरण
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (नवम पर्व)