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लगा और हार खड्ग की धार सम लगने लगे। उसके अंग में जल की अंजली को भी पचा दे, वैसा ताप निरंतर रहने लगा और प्रस्थ प्रमाण धान पकाये वैसे कढ़ाई को भी भर दे वैसी अश्रुधारा बहने लगी । कामाग्नि से पीड़ित हुई वह बाला प्रभात में, प्रदोष में, रात में या दिन में जरा भी सुख नहीं पाती। प्रभावती की ऐसी स्थिति देख उसकी सखियों ने यह वृत्तांत उसके रक्षण के लिए माता-पिता को ज्ञात कराया । पुत्री को पार्श्वकुमार पर अनुरक्त जानकर, उसे आश्वासन देने के लिए वे उसे बारबार इस प्रकार कहने लगे कि- पार्श्वकुमार तीन जगत् में शिरोमणि है, और अपनी दुहिता ने योग्य वर शोध लिया है। अतः अपनी पुत्री तो योग्य जनों में अग्रणी जैसी है। ऐसे मातापिता के वचन से मेघध्वनि द्वारा मयूरी की तरह प्रभावती हर्षित होने लगी एवं कुछ स्वस्थ होकर पार्श्वकुमार का नामरूप जापमंत्र को योगिनी के समान अंगुली पर गिनती गिनती आशा द्वारा दिन निगर्मन करने लगी । परंतु द्वितीय के चंद्र के समान वह ऐसी कृश हो गई कि मानो कामदेव के धनुष की दूसरी यष्टि हो, वैसी दिखाई देने लगी। दिन पर दिन उस बाला को अत्यन्त विधुर हुई देखकर उसके माता पिता ने उसे पार्श्वकुमार के पास स्वयंवरा रूप से प्रेषित करने का निश्चय किया ।
(गा. 68 से 94 )
ये समाचार कलिंगादि देशों के नायक यवन नामक अतिदुर्दात राजा ने भी जाने । तब वह सभा के बीच में ही बोला कि मेरे होने पर प्रभावती को परणने वाला यह पार्श्वकुमार कौन होता है ? और वह कुशस्थल का पति कौन है कि जो मुझे प्रभावती को न दे ? यदि याचक के समान कोई वह वस्तु ले जाएगा तो वीर लोग उसका सर्वस्व लूट लेंगे । इस प्रकार कहकर अनन्य पराक्रमी उस यवन राजा ने विशाल सैन्य लेकर कुशस्थल के समीप आकर उसको चारों ओर से घेर लिया। इससे ध्यान करते हुए योगी के शरीर में पवन की तरह उस नगर में से कोई को भी बाहर निकलने का मार्ग ही नहीं रहा । ऐसे कष्ट के समय में राजा की प्रेरणा से मैं अर्धरात्रि में उस नगर में से गुप्तरीति से बाहर निकला हूँ। मैं सागरदत्त का पुत्र
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (नवम पर्व )
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