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साथ ही वज्र जैसे दृढ़ सर्प के लंछनवाले और वज्र के मध्यभाग के समान कृश उदरवाले प्रभु वज्रऋषभनाराच संहनन को धारण करते हुए अत्यन्त शोभायमान होने लगे। प्रभु के स्वरूप को देखकर स्त्रियाँ सोचने लग जाती कि 'ये कुमार जिनके पति होंगे, वह स्त्री पृथ्वी में धन्य है।'
(गा. 43 से 52) एक बार अश्वसेन राजा राज्य सभा में जिनधर्म की कथा में तल्लीन थे कि प्रतिहार ने आकर निवेदन किया कि हे नरेश्वर! सुंदर आकृतिवाला कोई पुरुष द्वार पर आया है और वह आप स्वामी को कुछ विज्ञप्ति करना चाहता है। अतः प्रवेश की आज्ञा देकर उस पर प्रसन्न हो। राजा ने कहा कि- उसे सत्वर प्रवेश कराओ “न्यायी राजाओं के पास आकर सभी विज्ञप्ति ही करते हैं।" द्वारपाल ने उसे प्रवेश कराया। तब उसने आकर प्रथम राजा को नमस्कार किया। पश्चात् प्रतिहार द्वारा बताए आसन पर बैठा। राजा ने उसे पूछा कि हेभद्र! तुम किनके सेवक हो? कौन हो? और किस कारण से यहाँ मेरे पास आए हो? वह पुरुष बोला, “हे स्वामिन्! इस भरतक्षेत्र में लक्ष्मी का क्रीड़ास्थल जैसा कुशस्थल नामका नगर है। उस नगर में शरणार्थियों के कवच रूप और याचकों को कल्पवृक्ष रूप नरवर्मा नामक पराक्रमी राजा थे। वे अपनी सीमा के अनेक राजाओं को साधकर व प्रलयकाल के सूर्य के समान प्रचंड तेज से प्रकाशित थे। जैनधर्म में तत्पर रहकर इन राजा ने मुनिराज की सेवा में सदा उद्यत रहकर अखंड न्याय
और पराक्रम से चिरकाल तक अपने राज्य का पालन किया। पश्चात् संसार से उद्वेग होने पर राज्यलक्ष्मी को तृणवत् छोड़कर, सुसाधु गुरु के पास उन्होंने दीक्षा ग्रहण की।" उस पुरुष ने इतनी अर्धबात कही, वहाँ तो धार्मिकवत्सल अश्वसेन राजा हर्षित होकर सभासदों को बीच में ही उठकर बोले कि अहो! नरवर्मा राजा कितने विवेकी और धर्मज्ञ थे, कि जिन्होंने राज्य का तृणवत् त्याग कर व्रत ग्रहण किया।' नृपगण प्राणों को संशय में डालकर, बड़े बड़े युद्ध में विविध उद्यम करके राज्य प्राप्त करते हैं, उन राज्यों को प्राणांत तक भी त्याग करना मुश्किल है। अपनी और अपनी
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (नवम पर्व)