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अंधकार को नष्ट करने में चंद्र जैसे प्रभु आपको मेरा नमस्कार हो । त्रिजगत् में पवित्र, ज्ञानादि रत्नत्रय के धारक, कर्मरूप स्थल को खोदने में खनित्र (खोदने का हथियार) समान और उत्तम चारित्रवान् ऐसे प्रभु आपको मेरा नमस्कार हो । सर्व अतिशय के पात्र, अत्यन्त दयावान्, सर्व संपत्ति के कारणभूत हे परमात्मन्! आपको मेरा नमस्कार हो। कषायों से विमुक्त, करूणा के क्षीरसागर एवं राग-द्वेष से मुक्त ऐसे हे मोक्षगामी प्रभु! आपको मेरा नमस्कार हो। हे प्रभो! यदि आपके चरण की सेवा का यत्किंचित् भी फल हो तो, उस फल द्वारा आपका भक्तिभाव मुझे भवोभव में प्राप्त हों ।” इस प्रकार प्रभु की स्तुति करके, उनको लेकर वामादेवी के पार्श्व में रखकर अपनी प्रक्षेप की हुई अवस्वापिनी निद्रा का और पार्श्व में रखे प्रतिबिंब का संहरण करके इंद्र अपने स्थानक में चले गये ।
(गा. 35 से 42 ) अश्वसेन राजा ने प्रातः काल में कारागृह मोक्षपूर्वक (कैदियों को छुड़ाकर) उनका जन्मोत्सव किया। जब प्रभु गर्भस्थ थे, तब माता ने एक बार कृष्णपक्ष की रात्रि में भी पार्श्व में से निकलते एक सर्प देखा था, पश्चात् इस हकीकत का उन्होंने अपने स्वामी से कथन किया था । तब वह स्मरण करते हुए इसमें गर्भ का ही प्रभाव ज्ञात किया था, ऐसा निर्णय करके राजा ने कुमार का पार्श्व नामकरण किया। इंद्र की आज्ञांकिता अप्सरास्वरूप धात्रियों से लालित हुए जगत्पति राजाओं के अंकों (गोद) में संचरते हुए वृद्धिगत होने लगे । अनुक्रम से नवहस्त की अवगाहना युक्त काया वाले कामदेव की क्रीड़ा करने के उपवन जैसे और मृगाक्षियों की कामण करने वाली यौवनावस्था को प्राप्त किया। मानो नीलमणि के सारथी या नीलोत्पल की लक्ष्मी से निर्मित हो, वैसे पार्श्व प्रभु नीलकांति द्वारा सुशोभित होने लगे । विशाल शाखावाले वृक्ष की तरह आजानबाहु (लंबीभुजावाले) और बड़े तटवाले गिरि की तरह वक्षःस्थल से प्रभु विशेष शोभनीय हो गये । हस्तकमल, चरणकमल, बदनकमल और नेत्रकमल द्वारा ये अश्वसेनकुमार विकस्वर हुए कमलों के वन द्वारा जैसे विशाल द्रह ( सरोवर) शोभे वैसे शोभित होने लगे
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित ( नवम पर्व )
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