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ध्वजाएं और पद्मकोश के समान सुवर्ण के कुंभ शोभायमान हैं। उस नगरी के किले के ऊपर अर्धरात्रि को जब पूर्णिमा का चंद्र आता है, तब उसे देखने वाले को रूपा(चांदी) के कांगरों का भ्रम होता है । इंद्रनीलमणि से बद्ध वहाँ के वासगृहों की भूमि में अतिथियों की स्त्रियाँ जल समझकर हाथ डालती हैं, तो उनका उपहास्य होता है। उस नगर के चैत्यों में सुगंधित धूप का धूम्र इतना अधिक प्रसरता है कि मानो दृष्टिदोष (नजर) न लगने हेतु नीलवस्त्र बांधा हो ऐसा महसूस होता है । संगीत में होने वाले मुरज शब्दों से उस नगर में मेघ की ध्वनि की शंका से मयूर सदैव वर्षाऋतु की संभावना से केकारव करते रहते हैं ।
(गा. 8 से 13)
ऐसी सुशोभित वाराणसी नगरी में इक्ष्वाकु वंश में अश्वसेन नामक राजा हुए। उन्होंने अश्वसेना से दिशाओं के भाग को रणांगण समान कर दिये थे। वे राजा सदाचार रूपी नदी में उत्पन्न होने वाले गिरि थे । गुणरूप पक्षियों के लिए आशय रूपी वृक्ष थे और पृथ्वी में लक्ष्मी रूपी हथिनियों के बंधनस्तंभ तुल्य थे। राजाओं में पुण्डरीक जैसे उस राजा की आज्ञा को सर्प जैसे दुराचारी राजा भी उल्लंघन नहीं कर सकते थे। उस राजा के सर्व रानियों में शिरोमणि और सपत्नियों में अवामा ऐसी वामादेवी नाम की पटराणी थी। वह अपने पति के यश जैसा निर्मल शील धारण करती थी एवं स्वाभाविक पवित्रता से मानो दूसरी गंगा हो, ऐसी ज्ञात होती थी । इन गुणों सेवामा देवी राणी पति को अत्यन्त वल्लभ थी । तथापि वह वल्लभपना जरा भी बताती नहीं थी। साथ ही अभिमान भी नहीं करती थी ।
(गा. 14 से 21 )
इधर प्राणतकल्प में उत्तम देवसमृद्धि को भोगकर सुवर्णबाहु राजा के जीव ने अपना देव संबंधी आयुष्य पूर्ण किया । तत्पश्चात् चैत्र मास की कृष्ण चतुर्थी को विशाखा नक्षत्र में वहाँ से च्यवकर वह देव अर्ध रात्रि को वामादेवी के कुक्षी में अवतरा। उस समय वामादेवी ने तीर्थंकर के जन्म को सूचित करनेवाले चौदह महास्वप्नों को मुख में प्रवेश करते हुए देखें | इन्द्रों
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित ( नवम पर्व )
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