________________
तपस्या करके गीतार्थ हुए। पश्चात् अर्हन्त भक्ति आदि स्थानकों की आराधना करके प्राज्ञ सुवर्णबाहू महामुनि ने तीर्थंकर नामकर्म उपार्जन किया।
(गा. 294 से 301) एक बार विहार करते हुए वे मुनि क्षीरगिरि के समीपस्थ विविध प्रकार के हिंसक प्राणियों से भयंकर ऐसी क्षीरवर्णा अटवी में आए। वहाँ सूर्य से अधिक तेजस्वी वे सुवर्णबाहु मुनि सूर्य के सम्मुख दृष्टि स्थिर करके कायोत्सर्ग करके आतापना लेने लगे। उस समय वह कुरंगक भील नरक में से निकलकर उसी पर्वत में सिंह हुआ था। वह घूमता घूमता देवयोग से वहाँ आ चढ़ा। उसे पहले दिन भी भक्ष्य मिला नहीं होने से वह क्षुधातुर था। इतने में यमराज जैसा उस सिंह ने दूर से ही इन महर्षि को देखा। पूर्व जन्म के वैर से मुख को फाड़ता हुआ और पूंछ की फटकार से पृथ्वी को फोड़ता हो, वैसा वह शूद्र पंचानन मुनि की ओर बढ़ने लगा। कान और केशराशि को ऊँचा करके, गर्जना से गिरिगुहा को आपूरित करता हुआ लंबी छलांग लगाकर उसने मुनि पर झपाटा मारा। सिंह के उछल कर आने से पहले, देह पर भी निस्पृह उन मुनि ने तत्काल ही चतुर्विध आहार का प्रत्याख्यान कर लिया। आलोचना करके सर्वप्राणियों को खमाया एवं सिंह पर किंचित् भी विकार लाए बिना धर्मध्यान में स्थित हो गये। केशरीसिंह से विदीर्ण हुए वे मुनि मृत्युपरान्त दसवें देवलोक में महाप्रभ नामक विमान में बीस सागरोपम की स्थिति वाले देव हुए। वह सिंह भी मृत्यु के पश्चात् दस सागरोपम की स्थिति वाली चौथी नरक में गया। पश्चात् तिर्यंच बना एवं विविध योनी में भटका।
(गा. 302 से 310)
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (नवम पर्व)
[67]