________________
का अनुसरण करके षट्खंड पृथ्वीमण्डल को लीलामात्र में साध लिया। पश्चात् सूर्य की भांति अपने तेज से सर्व के तेज को निस्तेज करते हुए सुवर्णबाहु चक्रवर्ती विचित्र क्रीड़ा से क्रीड़ा करते हुए आनंद में रहने लगे।
(गा. 287 से 289) एक बार चक्रवर्ती महल के गवाक्ष में बैठे हुए थे कि उस समय आकाश में से देवताओं के वृंद को उतरते हुए एवं नीचे जाते हुए देखा। यह देखकर वे विस्मित हुए। उसी समय उनको श्रवणगोचर हुआ कि जगन्नाथ तीर्थंकर भगवान् समवसरे हैं। यह सुनते ही श्रद्धाबद्ध मनस्वी चक्रवर्ती भी उनको वंदन करने गये। वहाँ जाकर प्रभु को वंदन करके, योग्य स्थान पर बैठकर उनके पास अकस्मात् अमृतलाभ तुल्य देशना श्रवण की। अनेक भव्य प्राणियों को प्रतिबोध देकर प्रभु ने वहाँ से अन्यत्र विहार किया। सुवर्णबाहु चक्रवर्ती भी अपने निवास स्थान पर आये।
___ (गा. 290 से 293) तीर्थंकर प्रभु की देशना श्रवण करने आए हुए देवताओं को बारम्बार स्मरण करते हुए 'मैंने कहीं ऐसे देवताओं को देखा है। ऐसा ऊहापोह करते हुए उनको जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ। तब वे चिन्तन करने लगे, कि 'जब मैं अपने पूर्वभव को देखता हूँ, तब प्रत्येक मनुष्यभव में प्रयत्न करने पर भी अभी तक मेरे भव का अंत आया नहीं।' जो देवेन्द्रपद को प्राप्त कर लेता है, वह प्राणी मनुष्यपने में भी पुनः तृप्ति को प्राप्त करता है। अहो! 'कर्म से जिनका स्वभाव ढक गया है, ऐसी आत्मा को यह कैसा मोह हुआ है?' जिस प्रकार मार्ग भ्रष्ट मुसाफिर भ्रांति से अन्य मार्ग पर चला जाता है, वैसे मोक्षमार्ग को भूला प्राणी भी स्वर्ग, मर्त्य, तिर्यंच एवं नरकगति में गमनागमन करता रहता है। अब तो मैं मोक्ष मार्ग के लिए ही विशेष प्रयत्न करूँगा। सामान्य प्रयोजन में भी क्षुब्ध होना नहीं है, वही कल्याण का मूल है। इस प्रकार निश्चय करके सुवर्णबाहु चक्रवर्ती ने अपने पुत्र को राज्याधीन किया। उसी समय जगन्नाथ चक्रवर्ती भी विचरण करते हुए वहाँ पधारे। सुवर्णबाहु ने तत्काल ही प्रभु के पास जाकर दीक्षा ली। अनुक्रम से उग्र
[66]
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (नवम पर्व)