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के पास गये। राजा ने खड़े होकर उनका सत्कार किया और कहा कि 'मैं आपके दर्शन हेतु उत्कंठित था, एवं मुझे आपके पास आना ही चाहिए। उस उपरांत भी आप यहां कैसे पधारे ?' गालव ने कहा 'अन्य भी कोई जो हमारे आश्रय में आता है, तो वह अतिथि होने से पूज्य है, उस पर भी आप तो विशेष पूज्य हैं। यह पद्मा जो मेरी भागिनेय (भाणजी) है, उसे ज्ञानी महात्मा ने तुम्हारी पनि होना बताया है। उसके पुण्ययोग से आप यहाँ आ पहुँचे हों, अब इस बाला का आप पाणिग्रहण करो। ऐसे गालव ऋषि के वचन से दूसरी पद्मा (लक्ष्मी) हो, ऐसी पद्मा के साथ सुवर्णबाहु ने गंधर्व विधि से विवाह किया। रत्नावली ने हर्षित चित्तवाले सुवर्णबाहु को कहा कि हे राजन्! आप इस पद्मा को हृदयकमल में सूर्य के समान बने रहे।
(गा. 252 से 260) रत्नावली के पद्मोत्तर नाम का सौतेला पुत्र था। वह खेचरपति कुछ उपहार लेकर विमान से आकाश को आच्छादित करता हुआ, उस प्रदेश में आया। रत्नावली ने उसे सर्व हकीकत ज्ञात कराई, तब उसने सुवर्णबाहु को नमस्कार करके अंजलीबद्ध होकर कहने लगा, हे देव! आपका यह वृत्तान्त ज्ञात होने पर आपकी सेवा के लिए ही मैं यहाँ आया हूँ। इसलिए हे राजन्! आप मुझे आज्ञा दें। हे प्रतापी! वैताढ्य गिरि पर मेरा नगर है। वहाँ आप पधारें। वहाँ पधारने से विद्याधरों की सर्व ऐश्वर्य लक्ष्मी आपको प्राप्त होगी। उसके अति आग्रह से राजा ने उसका वचन स्वीकार किया। इसी समय पद्मा ने अपनी माता को नमन करके गद्गद् वाणी से कहा, हे माता! अब तो मुझे स्वामी के साथ जाना पड़ेगा। क्योंकि अब इनके सिवा मेरा दूसरा कोई स्थान है भी नहीं। अतः कहो अब अपना पुनः मिलना कब होगा? ये बंधु समान उद्यानवृक्षों को मुझे छोड़ना पड़ेगा। यह प्यारा मयूर मेघ वर्षा के समय षड़ज स्वर बोलकर और आम्रवृक्षों को, बछड़े को गायों के सदृश पयपान कौन करायेगा? रत्नावली बोली · वत्से! तू एक चक्रवर्ती राजा की पत्नी बनी है, तो तू अब धिक्कार भरे इन वनवासियों के वृत्तांत को भूल जा। अब तो तुझे पृथ्वी के इंद्र तुल्य चक्रवर्ती राजा का अनुसरण करना, तू इनकी पट्टरानी होगी। इस हर्ष के समय तू शोक को छोड़ दे।
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (नवम पर्व)