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इस प्रकार कहकर उसके मस्तक पर चुम्बक करके, भरपूर आलिंगन करके उसे उत्संग में बिठाकर रत्नावली उसे शिक्षा देने लगी कि “हे वत्से! अब तो पतिगृह में जा रही है, अतः वहां हमेशा प्रियंवदा होना। पति के भोजन करने के पश्चात् भोजन करना और उनके शयन करने के पश्चात् सोना। चक्रवर्ती की अन्य स्त्रियाँ, जो कि तेरी सखियाँ (सौतन) होगी, वे यदि कभी सौतन भाव बतावें तो भी तू उनके अनुकूल होकर रहना। क्योंकि महत्वपूर्ण लोगों की ऐसी ही योग्यता होती है। हे वत्से सदैव मुख के आगे वस्त्र रखकर, नीचे दृष्टि रखकर सूर्य मुखी (पोयणी) के समान असूर्यपश्मा (सूर्य को भी नहीं देख सके) होना। हे पुत्री! सासू के चरणकमल की सेवा हँसते हुए करना। कभी भी मैं चक्रवर्ती की पत्नी हूँ, ऐसा अभिमान करना नहीं। तेरी सौतन की संतान को अपना ही पुत्र मानना। इस प्रकार अपनी माता के अमृत जैसे शिक्षावचनों का कर्णांजली द्वारा पान करके, नमन करके उनसे इजाजत ली। वह अपने पति की ही अनुचरी बनी। पद्मोत्तर विद्याधर ने अपनी माता रत्नावली को प्रणाम करके चक्रवर्ती को कहा कि हे स्वामिन्! इस मेरे विमान को ही अलंकृत करो। पश्चात् गालव मुनि की इजाजत लेकर सुवर्णबाहु राजा अपने परिवार सहित पद्मोत्तर के विमान में बैठे। पद्मोत्तर अपनी बहन पद्मा सहित सुवर्णबाहु को वैताढ्यगिरि पर अपने रत्नपुर नगर में ले गया। वहाँ देवता के विमानतुल्य एक रत्नजड़ित महल जो कि अनेक खेचरों से परिवृत था, वह सुवर्णबाहु को सौंपा एवं स्वयं हमेशा दासी की भांति उसके पास रहकर उनकी आज्ञा शिरोधार्य करने लगा। साथ ही स्नान, भोजनादि द्वारा उनकी योग्य सेवा भक्ति करने लगा। वहाँ रहकर सुवर्णबाहु ने अपनी अत्यन्त पुण्यसंपत्ति से दोनों श्रेणी में स्थित सर्व विद्याधरों के ऐश्वर्य को प्राप्त किया एवं अनेक विद्याधरों की कन्याओं को परणा। विद्याधरों ने सर्वविद्याधरों के ऐश्वर्य पर खेचरियों को साथ में लेकर सुवर्णबाहु परिवार सहित अपने नगर में गये।
(गा. 261 से 286) सुवर्णबाहु राजा को पृथ्वी पर राज्य करते समय अनुक्रम से चौदह रत्नों की प्राप्ति हुई। देवताओं से सेवित उन सुवर्णबाहु चक्रवर्ती ने चक्ररत्न के मार्ग
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (नवम पर्व)
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