________________
सर्ग - 3 श्री पार्श्वनाथ प्रभु का जन्म, कौमरावस्था दीक्षाग्रहण एवं केवलज्ञान की उत्पत्ति
पूर्वोक्त सिंह का जीव असंख्यभवों में दुःख का अनुभव करता हुआ किसी समय किसी गांव में एक निर्धन ब्राह्मण के घर पुत्ररूप में उत्पन्न हुआ। उसका जन्म होते ही उसे माता पिता एवं भ्राता आदि सर्व मृत्यु को प्राप्त हो गये। लोगों ने कृपा करके उसे जिलाया और उसका कमठ नामकरण किया। बाल्ववय का उल्लंघन करके वह यौवनवय को प्राप्त हुआ। परंतु निरंतर दुःखी स्थिति को भोगता हुआ और लोगों से हैरान होता हुआ वह मुश्किल से भोजन पा सकता था। एक बार गांव के धनाढ्य लोगों को रत्नालंकार धारण करते हुए देखकर उसे तत्काल ही वैराग्य हो गया। वह सोचने लगा कि “हजारों के पेट का पोषण करने वाले और विविध आभूषण धारण करने वाले ये गृहस्थ देवता जैसे लगते हैं", मुझे लगता है कि 'पूर्व भव के तप का ही यह फल है।' मैं मात्र भोजन की अभिलाषा करने में ही इतना दुःखी होता हूँ, तो मैंने पूर्व में कोई भी तप किया हुआ नहीं लगता है। अतः इस भव में मैं अवश्य ही तपाचरण करूँ। ऐसा विचार करके उस कमठ ने तापसव्रत ग्रहण किया एवं कंदमूलादिक का भोजन करता हुआ पंचाग्नि तप करने लगा।
(गा. 1 से 7) इसी जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र में आभूषण तुल्य गंगा नदी के पास वाराणसी नामक नगरी है। उस नगर में चैत्यों के ऊपर गंगा के तरंग जैसी
[68]
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (नवम पर्व)